द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं हि
व्याप्तं त्वयैकेन दिशश्च सर्वाः ।
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं
लोकत्रयं प्रव्यथितं महात्मन् ॥ २० ॥

शब्दार्थ

द्यौ – बाह्य आकाश से लेकर; आ-पृथिव्योः – पृथ्वी तक; इदम् – इस; अन्तरम् – मध्य में; हि – निश्चय ही; व्याप्तम् – व्याप्त; त्वया – आपके द्वारा; एकेन – अकेला; दिशः – दिशाएँ; – तथा; सर्वाः – सभी; दृष्ट्वा – देखकर; अद्भुतम् – अद्भुत; रूपम् – रूप को; उग्रम् – भयानक; तव – आपके; इदम् – इस; लोक – लोक; त्रयम् – तीन; प्रव्यथितम् – भयभीत, विचलित; महा-आत्मन् – हे महापुरुष ।

भावार्थ

यद्यपि आप एक हैं, किन्तु आप आकाश तथा सारे लोकों एवं उनके बीच के समस्त अवकाश में व्याप्त हैं । हे महापुरुष! आपके इस अद्भुत तथा भयानक रूप को देखकर सारे लोक भयभीत हैं ।

तात्पर्य

इस श्लोक में द्याव्-आ-पृथिव्योः (धरती तथा आकाश के बीच का स्थान) तथा लोकत्रयम् (तीनों संसार) महत्त्वपूर्ण शब्द हैं, क्योंकि ऐसा लगता है कि न केवल अर्जुन ने इस विश्वरूप को देखा, बल्कि अन्य लोकों के वासियों ने भी इसे देखा । अर्जुन द्वारा विश्वरूप का दर्शन स्वप्न न था । भगवान् ने जिन जिनको दिव्य दृष्टि प्रदान की, उन्होंने युद्धक्षेत्र में उस विश्वरूप को देखा ।