तत्रैकस्थं जगत्कृत्स्नं प्रविभक्तमनेकधा ।
अपश्यद्देवदेवस्य शरीरे पाण्डवस्तदा ॥ १३ ॥

शब्दार्थ

तत्र – वहाँ; एक-स्थम् – एकत्र, एक स्थान में; जगत् – ब्रह्माण्ड; कृत्स्नम् – सम्पूर्ण; प्रविभक्तम् – विभाजित; अनेकधा – अनेक में; अपश्यत् – देखा; देव-देवस्य – भगवान् के; शरीरे – विश्वरूप में; पाण्डवः – अर्जुन ने; तदा – तब ।

भावार्थ

उस समय अर्जुन भगवान् के विश्वरूप में एक ही स्थान पर स्थित हजारों भागों में विभक्त ब्रह्माण्ड के अनन्त अंशों को देख सका ।

तात्पर्य

तत्र (वहाँ) शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इससे सूचित होता है कि जब अर्जुन ने विश्वरूप देखा, उस समय अर्जुन तथा कृष्ण दोनों ही रथ पर बैठे थे । युद्धभूमि के अन्य लोग इस रूप को नहीं देख सके, क्योंकि कृष्ण ने केवल अर्जुन को दृष्टि प्रदान की थी । वह कृष्ण के शरीर में हजारों लोक देख सका । जैसा कि वैदिक शास्त्रों से पता चलता है कि ब्रह्माण्ड अनेक हैं और लोक भी अनेक हैं । इनमें से कुछ मिट्टी के बने हैं, कुछ सोने के, कुछ रत्नों के, कुछ बहुत बड़े हैं, तो कुछ बहुत बड़े नहीं हैं । अपने रथ पर बैठकर अर्जुन इन सबों को देख सकता था । किन्तु कोई यह नहीं जान पाया कि अर्जुन तथा कृष्ण के बीच क्या चल रहा था ।