दण्डो दमयतामस्मि नीतिरस्मि जिगीषताम् ।
मौनं चैवास्मि गुह्यानां ज्ञानं ज्ञानवतामहम् ॥ ३८ ॥

शब्दार्थ

दण्डः – दण्ड; दमयताम् – दमन के समस्त साधनों में से; अस्मि – हूँ; नीतिः – सदाचार; अस्मि – हूँ; जिगीषताम् – विजय की आकांक्षा करने वालों में; मौनम् – चुप्पी, मौन; – तथा; एव – भी; अस्मि – हूँ; गुह्यानाम् - रहस्यों में; ज्ञानम् – ज्ञान; ज्ञान-वताम् – ज्ञानियों में; अहम् – मैं हूँ ।

भावार्थ

अराजकता को दमन करने वाले समस्त साधनों में से मैं दण्ड हूँ और जो विजय के आकांक्षी हैं उनकी मैं नीति हूँ । रहस्यों में मैं मौन हूँ और बुद्धिमानों में ज्ञान हूँ ।

तात्पर्य

वैसे तो दमन के अनेक साधन हैं, किन्तु इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण है दुष्टों का नाश । जब दुष्टों को दण्डित किया जाता है तो दण्ड देने वाला कृष्णस्वरूप होता है । किसी भी क्षेत्र में विजय की आकांक्षा करने वाले में नीति की ही विजय होती है । सुनने, सोचने तथा ध्यान करने की गोपनीय क्रियाओं में मौन धारण ही सबसे महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि मौन रहने से जल्दी उन्नति मिलती है । ज्ञानी व्यक्ति वह है, जो पदार्थ तथा आत्मा में, भगवान् की परा तथा अपरा शक्तियों में भेद कर सके । ऐसा ज्ञान साक्षात् कृष्ण है ।