महर्षीणां भृगुरहं गिरामस्म्येकमक्षरम् ।
यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि स्थावराणां हिमालयः ॥ २५ ॥
शब्दार्थ
महा-ऋषीणाम् – महर्षियों में; भृगुः – भृगु; अहम् – मैं हूँ; गिराम् – वाणी में; अस्मि – हूँ; एकम्-अक्षरम् – प्रणव; यज्ञानाम् – समस्त यज्ञों में; जप-यज्ञः – कीर्तन, जप; अस्मि – हूँ; स्थावराणाम् – जड़ पदार्थों में; हिमालयः – हिमालय पर्वत ।
भावार्थ
मैं महर्षियों में भृगु हूँ, वाणी में दिव्य ओंकार हूँ, समस्त यज्ञों में पवित्र नाम का कीर्तन (जप) तथा समस्त अचलों में हिमालय हूँ ।
तात्पर्य
ब्रह्माण्ड के प्रथम जीव ब्रह्मा ने विभिन्न योनियों के विस्तार के लिए कई पुत्र उत्पन्न किये । इनमें से भृगु सबसे शक्तिशाली मुनि थे । समस्त दिव्य ध्वनियों में ओंकार कृष्ण का रूप है । समस्त यज्ञों में हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे - का जप कृष्ण का सर्वाधिक शुद्ध रूप है । कभी-कभी पशु यज्ञ की भी संस्तुति की जाती है, किन्तु हरे कृष्ण यज्ञ में हिंसा का प्रश्न ही नहीं उठता । यह सबसे सरल तथा शुद्धतम यज्ञ है । समस्त जगत में जो कुछ शुभ है, वह कृष्ण का रूप है । अतः संसार का सबसे बड़ा पर्वत हिमालय भी उन्हीं का स्वरूप है । पिछले श्लोक में मेरु का उल्लेख हुआ है, परन्तु मेरु तो कभी-कभी सचल होता है, लेकिन हिमालय कभी चल नहीं है । अतः हिमालय मेरु से बढ़कर है ।