अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥ २० ॥

शब्दार्थ

अहम् – मैं; आत्मा- आत्मा; गुडाकेश – हे अर्जुन; सर्व-भूत – समस्त जीव; आशय-स्थितः – हृदय में स्थित; अहम् – मैं; आदि – उद्गम; मध्यम् – मध्य; – भी; भूतानाम् – समस्त जीवों का; अन्तः – अन्त; एव – निश्चय ही; – तथा ।

भावार्थ

हे अर्जुन! मैं समस्त जीवों के हृदयों में स्थित परमात्मा हूँ । मैं ही समस्त जीवों का आदि, मध्य तथा अन्त हूँ ।

तात्पर्य

इस श्लोक में अर्जुन को गुडाकेश कहकर सम्बोधित किया गया है जिसका अर्थ है, “निद्रा रूपी अन्धकार को जीतने वाला ।” जो लोग अज्ञान रूपी अन्धकार में सोये हुए हैं, उनके लिए यह समझ पाना सम्भव नहीं है कि भगवान् किन-किन विधियों से इस लोक में तथा वैकुण्ठलोक में प्रकट होते हैं । अतः कृष्ण द्वारा अर्जुन के लिए इस प्रकार का सम्बोधन महत्त्वपूर्ण है । चूँकि अर्जुन ऐसे अन्धकार से ऊपर है, अतः भगवान् उससे विविध ऐश्वर्यों को बताने के लिए तैयार हो जाते हैं ।

सर्वप्रथम कृष्ण अर्जुन को बताते हैं कि वे अपने मूल विस्तार के कारण समग्र दृश्यजगत की आत्मा हैं । भौतिक सृष्टि के पूर्व भगवान् अपने मूल विस्तार के द्वारा पुरुष अवतार धारण करते हैं और उन्हीं से सब कुछ आरम्भ होता है । अतः वे प्रधान महत्तत्व की आत्मा हैं । इस सृष्टि का कारण महत्तत्त्व नहीं होता, वास्तव में महाविष्णु सम्पूर्ण भौतिक शक्ति या महत्तत्व में प्रवेश करते हैं । वे आत्मा हैं । जब महाविष्णु इन प्रकटीभूत ब्रह्माण्डों में प्रवेश करते हैं तो वे प्रत्येक जीव में पुनः परमात्मा के रूप में प्रकट होते हैं । हमें ज्ञात है कि जीव का शरीर आत्मा के स्फुलिंग की उपस्थिति के कारण विद्यमान रहता है । बिना आध्यात्मिक स्फुलिंग के शरीर विकसित नहीं हो सकता । उसी प्रकार भौतिक जगत् का तब तक विकास नहीं होता. जब तक परमात्मा कृष्ण का प्रवेश नहीं हो जाता । जैसा कि सुबल उपनिषद् में कहा गया है - प्रकृत्यादि सर्वभूतान्तर्यामी सर्वशेषी च नारायणः - परमात्मा रूप में भगवान् समस्त प्रकटीभूत ब्रह्माण्डों में विद्यमान हैं ।

श्रीमद्भागवत में तीनों पुरुष अवतारों का वर्णन हुआ है । सात्वत तन्त्र में भी इनका वर्णन मिलता है । विष्णोस्तु त्रीणि रूपाणि पुरुषाख्यान्यथो विदुः- भगवान् इस लोक में अपने तीन स्वरूपों को प्रकट करते हैंकारणोदकशायी विष्णु, गर्भोदकशायी विष्णु तथा क्षीरोदकशायी विष्णु । ब्रह्मसंहिता में (५.४७) महाविष्णु या कारणोदकशायी विष्णु का वर्णन मिलता है । यः कारणार्णवजले भजति स्म योगनिद्राम् - सर्वकारण कारण भगवान् कृष्ण महाविष्णु के रूप में कारणार्णव में शयन करते हैं । अतः भगवान् ही इस ब्रह्माण्ड के आदि कारण, पालक तथा समस्त शक्ति के अवसान हैं ।