श्रीभगवानुवाच
हन्त ते कथयिष्यामि दिव्या ह्यात्मविभूतयः ।
प्राधान्यतः कुरुश्रेष्ठ नास्त्यन्तो विस्तरस्य मे ॥ १९ ॥

शब्दार्थ

श्रीभगवान् उवाच – भगवान् ने कहा; हन्त – हाँ; ते – तुमसे; कथयिष्यामि – कहूँगा; दिव्याः – दैवी; हि – निश्चय ही; आत्म-विभूतयः – अपने ऐश्वर्यों को; प्राधान्यतः - प्रमुख रूप से; कुरुश्रेष्ठ – हे कुरुश्रेष्ठ; न आस्ति – नहीं है; अन्तः – सीमा; विस्तरस्य – विस्तार की; मे – मेरे ।

भावार्थ

श्रीभगवान् ने कहा - हाँ, अब मैं तुमसे अपने मुख्य-मुख्य वैभवयुक्त रूपों का वर्णन करूँगा, क्योंकि हे अर्जुन! मेरा ऐश्वर्य असीम है ।

तात्पर्य

कृष्ण की महानता तथा उनके ऐश्वर्य को समझ पाना सम्भव नहीं है । जीव की इन्द्रियाँ सीमित हैं, अतः उनसे कृष्ण के कार्य-कलापों की समग्रता को समझ पाना सम्भव नहीं है । तो भी भक्तजन कृष्ण को जानने का प्रयास करते हैं, किन्तु यह मानकर नहीं कि वे किसी विशेष समय में या जीवन-अवस्था में उन्हें पूरी तरह समझ सकेंगे । बल्कि कृष्ण के वृत्तान्त इतने आस्वाद्य हैं कि भक्तों को अमृत तुल्य प्रतीत होते हैं । इस प्रकार भक्तगण उनका आनन्द उठाते हैं । भगवान् के ऐश्वर्यों तथा उनकी विविध शक्तियों की चर्चा चलाने में शुद्ध भक्तों को दिव्य आनन्द मिलता है, अतः वे उनको सुनते रहना और उनकी चर्चा चलाते रहना चाहते हैं । कृष्ण जानते हैं कि जीव उनके ऐश्वर्य के विस्तार को नहीं समझ सकते, फलतः वे अपनी विभिन्न शक्तियों के प्रमुख स्वरूपों का ही वर्णन करने के लिए राजी होते हैं । प्राधान्यतः शब्द अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि हम भगवान् के प्रमुख विस्तारों को ही समझ पाते हैं, जबकि उनके स्वरूप अनन्त हैं । इन सबको समझ पाना सम्भव नहीं है । इस श्लोक में प्रयुक्त विभूति शब्द उन ऐश्वर्यों का सूचक है, जिनके द्वारा भगवान् सारे विश्व का नियन्त्रण करते हैं । अमरकोश में विभूति का अर्थ विलक्षण ऐश्वर्य है ।

निर्विशेषवादी या सर्वेश्वरवादी न तो भगवान् के विलक्षण ऐश्वर्यों को समझ पाता है, न उनकी दैवी शक्तियों के स्वरूपों को । भौतिक जगत् में तथा वैकुण्ठ लोक में उनकी शक्तियाँ अनेक रूपों में फैली हुई हैं । अब कृष्ण उन रूपों को बताने जा रहे हैं, जो सामान्य व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से देख सकता है । इस प्रकार उनकी रंगबिरंगी शक्ति का आंशिक वर्णन किया गया है ।