चौपाई :

अवधपुरी अति रुचिर बनाई । देवन्ह सुमन बृष्टि झरि लाई ॥
राम कहा सेवकन्ह बुलाई । प्रथम सखन्ह अन्हवावहु जाई ॥ १ ॥

अवधपुरी बहुत ही सुंदर सजाई गई । देवताओं ने पुष्पों की वर्षा की झड़ी लगा दी । श्री रामचंद्रजी ने सेवकों को बुलाकर कहा कि तुम लोग जाकर पहले मेरे सखाओं को स्नान कराओ ॥ १ ॥

सुनत बचन जहँ तहँ जन धाए । सुग्रीवादि तुरत अन्हवाए ॥
पुनि करुनानिधि भरतु हँकारे । निज कर राम जटा निरुआरे ॥ २ ॥

भगवान् के वचन सुनते ही सेवक जहाँ-तहाँ दौड़े और तुरंत ही उन्होंने सुग्रीवादि को स्नान कराया । फिर करुणानिधान श्री रामजी ने भरतजी को बुलाया और उनकी जटाओं को अपने हाथों से सुलझाया ॥ २ ॥

अन्हवाए प्रभु तीनिउ भाई । भगत बछल कृपाल रघुराई ॥
भरत भाग्य प्रभु कोमलताई । सेष कोटि सत सकहिं न गाई ॥ ३ ॥

तदनन्तर भक्त वत्सल कृपालु प्रभु श्री रघुनाथजी ने तीनों भाइयों को स्नान कराया । भरतजी का भाग्य और प्रभु की कोमलता का वर्णन अरबों शेषजी भी नहीं कर सकते ॥ ३ ॥

पुनि निज जटा राम बिबराए । गुर अनुसासन मागि नहाए ॥
करि मज्जन प्रभु भूषन साजे । अंग अनंग देखि सत लाजे ॥ ४ ॥

फिर श्री रामजी ने अपनी जटाएँ खोलीं और गुरुजी की आज्ञा माँगकर स्नान किया । स्नान करके प्रभु ने आभूषण धारण किए । उनके (सुशोभित) अंगों को देखकर सैकड़ों (असंख्य) कामदेव लजा गए ॥ ४ ॥

दोहा :

सासुन्ह सादर जानकिहि मज्जन तुरत कराइ ।
दिब्य बसन बर भूषन अँग अँग सजे बनाइ ॥ ११ क ॥

(इधर) सासुओं ने जानकीजी को आदर के साथ तुरंत ही स्नान कराके उनके अंग-अंग में दिव्य वस्त्र और श्रेष्ठ आभूषण भली-भाँति सजा दिए (पहना दिए) ॥ ११ (क) ॥

राम बाम दिसि सोभति रमा रूप गुन खानि ।
देखि मातु सब हरषीं जन्म सुफल निज जानि ॥ ११ ख ॥

श्री राम के बायीं ओर रूप और गुणों की खान रमा (श्री जानकीजी) शोभित हो रही हैं । उन्हें देखकर सब माताएँ अपना जन्म (जीवन) सफल समझकर हर्षित हुईं ॥ ११ (ख) ॥

सुनु खगेस तेहि अवसर ब्रह्मा सिव मुनि बृंद ।
चढ़ि बिमान आए सब सुर देखन सुखकंद ॥ ११ ग ॥

(काकभुशुण्डिजी कहते हैं - ) हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनिए, उस समय ब्रह्माजी, शिवजी और मुनियों के समूह तथा विमानों पर चढ़कर सब देवता आनंदकंद भगवान् के दर्शन करने के लिए आए ॥ ११ (ग) ॥

चौपाई :

प्रभु बिलोकि मुनि मन अनुरागा । तुरत दिब्य सिंघासन मागा ॥
रबि सम तेज सो बरनि न जाई । बैठे राम द्विजन्ह सिरु नाई ॥ १ ॥

प्रभु को देखकर मुनि वशिष्ठजी के मन में प्रेम भर आया । उन्होंने तुरंत ही दिव्य सिंहासन मँगवाया, जिसका तेज सूर्य के समान था । उसका सौंदर्य वर्णन नहीं किया जा सकता । ब्राह्मणों को सिर नवाकर श्री रामचंद्रजी उस पर विराज गए ॥ १ ॥

जनकसुता समेत रघुराई । पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई ॥
बेद मंत्र तब द्विजन्ह उचारे । नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे ॥ २ ॥

श्री जानकीजी के सहित रघुनाथजी को देखकर मुनियों का समुदाय अत्यंत ही हर्षित हुआ । तब ब्राह्मणों ने वेदमंत्रों का उच्चारण किया । आकाश में देवता और मुनि ‘जय, हो, जय हो’ ऐसी पुकार करने लगे ॥ २ ॥

प्रथम तिलक बसिष्ट मुनि कीन्हा । पुनि सब बिप्रन्ह आयसु दीन्हा ॥
सुत बिलोकि हरषीं महतारी । बार बार आरती उतारी ॥ ३ ॥

(सबसे) पहले मुनि वशिष्ठजी ने तिलक किया । फिर उन्होंने सब ब्राह्मणों को (तिलक करने की) आज्ञा दी । पुत्र को राजसिंहासन पर देखकर माताएँ हर्षित हुईं और उन्होंने बार-बार आरती उतारी ॥ ३ ॥

बिप्रन्ह दान बिबिधि बिधि दीन्हे । जाचक सकल अजाचक कीन्हे ॥
सिंघासन पर त्रिभुअन साईं । देखि सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं ॥ ४ ॥

उन्होंने ब्राह्मणों को अनेकों प्रकार के दान दिए और संपूर्ण याचकों को अयाचक बना दिया (मालामाल कर दिया) । त्रिभुवन के स्वामी श्री रामचंद्रजी को (अयोध्या के) सिंहासन पर (विराजित) देखकर देवताओं ने नगाड़े बजाए ॥ ४ ॥

छंद :

नभ दुंदुभीं बाजहिं बिपुल गंधर्ब किंनर गावहीं ।
नाचहिं अपछरा बृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं ॥
भरतादि अनुज बिभीषनांगद हनुमदादि समेत ते ।
गहें छत्र चामर ब्यजन धनु असिचर्म सक्ति बिराजते ॥ १ ॥

आकाश में बहुत से नगाड़े बज रहे हैं । गन्धर्व और किन्नर गा रहे हैं । अप्सराओं के झुंड के झुंड नाच रहे हैं । देवता और मुनि परमानंद प्राप्त कर रहे हैं । भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्नजी, विभीषण, अंगद, हनुमान् और सुग्रीव आदि सहित क्रमशः छत्र, चँवर, पंखा, धनुष, तलवार, ढाल और शक्ति लिए हुए सुशोभित हैं ॥ १ ॥

श्री सहित दिनकर बंस भूषन काम बहु छबि सोहई ।
नव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई ॥
मुकुटांगदादि बिचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे ।
अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे ॥ २ ॥

श्री सीताजी सहित सूर्यवंश के विभूषण श्री रामजी के शरीर में अनेकों कामदेवों की छबि शोभा दे रही है । नवीन जलयुक्त मेघों के समान सुंदर श्याम शरीर पर पीताम्बर देवताओं के मन को भी मोहित कर रहा है । मुकुट, बाजूबंद आदि विचित्र आभूषण अंग-अंग में सजे हुए हैं । कमल के समान नेत्र हैं, चौड़ी छाती है और लंबी भुजाएँ हैं जो उनके दर्शन करते हैं, वे मनुष्य धन्य हैं ॥ २ ॥

दोहा :

वह सोभा समाज सुख कहत न बनइ खगेस ।
बरनहिं सारद सेष श्रुति सो रस जान महेस ॥ १२ क ॥

हे पक्षीराज गरुड़जी ! वह शोभा, वह समाज और वह सुख मुझसे कहते नहीं बनता । सरस्वतीजी, शेषजी और वेद निरंतर उसका वर्णन करते हैं, और उसका रस (आनंद) महादेवजी ही जानते हैं ॥ १२ (क) ॥

भिन्न भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम ।
बंदी बेष बेद तब आए जहँ श्रीराम ॥ १२ ख ॥

सब देवता अलग-अलग स्तुति करके अपने-अपने लोक को चले गए । तब भाटों का रूप धारण करके चारों वेद वहाँ आए जहाँ श्री रामजी थे ॥ १२ (ख) ॥

प्रभु सर्बग्य कीन्ह अति आदर कृपानिधान ।
लखेउ न काहूँ मरम कछु लगे करन गुन गान ॥ १२ ग ॥

कृपानिधान सर्वज्ञ प्रभु ने (उन्हें पहचानकर) उनका बहुत ही आदर किया । इसका भेद किसी ने कुछ भी नहीं जाना । वेद गुणगान करने लगे ॥ १२ (ग) ॥

छंद :

जय सगुन निर्गुन रूप रूप अनूप भूप सिरोमने ।
दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने ॥
अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे ।
जय प्रनतपाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे ॥ १ ॥

सगुण और निर्गुण रूप! हे अनुपम रूप-लावण्ययुक्त! हे राजाओं के शिरोमणि! आपकी जय हो । आपने रावण आदि प्रचण्ड, प्रबल और दुष्ट निशाचरों को अपनी भुजाओं के बल से मार डाला । आपने मनुष्य अवतार लेकर संसार के भार को नष्ट करके अत्यंत कठोर दुःखों को भस्म कर दिया । हे दयालु! हे शरणागत की रक्षा करने वाले प्रभो! आपकी जय हो । मैं शक्ति (सीताजी) सहित शक्तिमान् आपको नमस्कार करता हूँ ॥ १ ॥

तव बिषम माया बस सुरासुर नाग नर अग जग हरे ।
भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे ॥
जे नाथ करि करुना बिलोकि त्रिबिधि दुख ते निर्बहे ।
भव खेद छेदन दच्छ हम कहुँ रच्छ राम नमामहे ॥ २ ॥

हे हरे! आपकी दुस्तर माया के वशीभूत होने के कारण देवता, राक्षस, नाग, मनुष्य और चर, अचर सभी काल कर्म और गुणों से भरे हुए (उनके वशीभूत हुए) दिन-रात अनन्त भव (आवागमन) के मार्ग में भटक रहे हैं । हे नाथ! इनमें से जिनको आपने कृपा करके (कृपादृष्टि) से देख लिया, वे (माया जनित) तीनों प्रकार के दुःखों से छूट गए । हे जन्म-मरण के श्रम को काटने में कुशल श्री रामजी! हमारी रक्षा कीजिए । हम आपको नमस्कार करते हैं ॥ २ ॥

जे ग्यान मान बिमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी ।
ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी ॥
बिस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे ।
जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे ॥ ३ ॥

जिन्होंने मिथ्या ज्ञान के अभिमान में विशेष रूप से मतवाले होकर जन्म-मृत्यु (के भय) को हरने वाली आपकी भक्ति का आदर नहीं किया, हे हरि! उन्हें देव-दुर्लभ (देवताओं को भी बड़ी कठिनता से प्राप्त होने वाले, ब्रह्मा आदि के ) पद को पाकर भी हम उस पद से नीचे गिरते देखते हैं (परंतु), जो सब आशाओं को छोड़कर आप पर विश्वास करके आपके दास हो रहते हैं, वे केवल आपका नाम ही जपकर बिना ही परिश्रम भवसागर से तर जाते हैं । हे नाथ! ऐसे आपका हम स्मरण करते हैं ॥ ३ ॥

जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी ।
नख निर्गता मुनि बंदिता त्रैलोक पावनि सुरसरी ॥
ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत बन फिरत कंटक किन लहे ।
पद कंज द्वंद मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे ॥ ४ ॥

जो चरण शिवजी और ब्रह्माजी के द्वारा पूज्य हैं, तथा जिन चरणों की कल्याणमयी रज का स्पर्श पाकर (शिला बनी हुई) गौतम ऋषि की पत्नी अहल्या तर गई, जिन चरणों के नख से मुनियों द्वारा वन्दित, त्रैलोक्य को पवित्र करने वाली देवनदी गंगाजी निकलीं और ध्वजा, वज्र अंकुश और कमल, इन चिह्नों से युक्त जिन चरणों में वन में फिरते समय काँटे चुभ जाने से घट्ठे पड़ गए हैं, हे मुकुन्द! हे राम! हे रमापति! हम आपके उन्हीं दोनों चरणकमलों को नित्य भजते रहते हैं ॥ ४ ॥

अब्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने ।
षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने ॥
फल जुगल बिधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे ।
पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे ॥ ५ ॥

वेद शास्त्रों ने कहा है कि जिसका मूल अव्यक्त (प्रकृति) है, जो (प्रवाह रूप से) अनादि है, जिसके चार त्वचाएँ, छह तने, पच्चीस शाखाएँ और अनेकों पत्ते और बहुत से फूल हैं, जिसमें कड़वे और मीठे दो प्रकार के फल लगे हैं, जिस पर एक ही बेल है, जो उसी के आश्रित रहती है, जिसमें नित्य नए पत्ते और फूल निकलते रहते हैं, ऐसे संसार वृक्ष स्वरूप (विश्व रूप में प्रकट) आपको हम नमस्कार करते हैं ॥ ५ ॥

जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मनपर ध्यावहीं ।
ते कहहुँ जानहुँ नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं ॥
करुनायतन प्रभु सदगुनाकर देव यह बर मागहीं ।
मन बचन कर्म बिकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं ॥ ६ ॥

ब्रह्म अजन्मा है, अद्वैत है, केवल अनुभव से ही जाना जाता है और मन से परे है - (जो इस प्रकार कहकर उस) ब्रह्म का ध्यान करते हैं, वे ऐसा कहा करें और जाना करें, किंतु हे नाथ! हम तो नित्य आपका सगुण यश ही गाते हैं । हे करुणा के धाम प्रभो! हे सद्गुणों की खान! हे देव! हम यह वर माँगते हैं कि मन, वचन और कर्म से विकारों को त्यागकर आपके चरणों में ही प्रेम करें ॥ ६ ॥

दोहा :

सब के देखत बेदन्ह बिनती कीन्हि उदार ।
अंतर्धान भए पुनि गए ब्रह्म आगार ॥ १३ क ॥

वेदों ने सबके देखते यह श्रेष्ठ विनती की । फिर वे अंतर्धान हो गए और ब्रह्मलोक को चले गए ॥ १३ (क) ॥

बैनतेय सुनु संभु तब आए जहँ रघुबीर ।
बिनय करत गदगद गिरा पूरित पुलक सरीर ॥ १३ ख ॥

काकभुशुण्डिजी कहते हैं - हे गरुड़जी ! सुनिए, तब शिवजी वहाँ आए जहाँ श्री रघुवीर थे और गद्‍गद्‍ वाणी से स्तुति करने लगे । उनका शरीर पुलकावली से पूर्ण हो गया- ॥ १३ (ख) ॥

छंद :

जय राम रमारमनं समनं । भवताप भयाकुल पाहि जनं ॥
अवधेस सुरेस रमेस बिभो । सरनागत मागत पाहि प्रभो ॥ १ ॥

हे राम! हे रमारमण (लक्ष्मीकांत)! हे जन्म-मरण के संताप का नाश करने वाले! आपकी जय हो, आवागमन के भय से व्याकुल इस सेवक की रक्षा कीजिए । हे अवधपति! हे देवताओं के स्वामी! हे रमापति! हे विभो! मैं शरणागत आपसे यही माँगता हूँ कि हे प्रभो! मेरी रक्षा कीजिए ॥ १ ॥

दससीस बिनासन बीस भुजा । कृत दूरि महा महि भूरि रुजा ॥
रजनीचर बृंद पतंग रहे । सर पावक तेज प्रचंड दहे ॥ २ ॥

हे दस सिर और बीस भुजाओं वाले रावण का विनाश करके पृथ्वी के सब महान् रोगों (कष्टों) को दूर करने वाले श्री रामजी! राक्षस समूह रूपी जो पतंगे थे, वे सब आपके बाण रूपी अग्नि के प्रचण्ड तेज से भस्म हो गए ॥ २ ॥

महि मंडल मंडन चारुतरं । धृत सायक चाप निषंग बरं ।
मद मोह महा ममता रजनी । तम पुंज दिवाकर तेज अनी ॥ ३ ॥

आप पृथ्वी मंडल के अत्यंत सुंदर आभूषण हैं, आप श्रेष्ठ बाण, धनुष और तरकस धारण किए हुए हैं । महान् मद, मोह और ममता रूपी रात्रि के अंधकार समूह के नाश करने के लिए आप सूर्य के तेजोमय किरण समूह हैं ॥ ३ ॥

मनजात किरात निपात किए । मृग लोग कुभोग सरेन हिए ॥
हति नाथ अनाथनि पाहि हरे । बिषया बन पावँर भूलि परे ॥ ४ ॥

कामदेव रूपी भील ने मनुष्य रूपी हिरनों के हृदय में कुभोग रूपी बाण मारकर उन्हें गिरा दिया है । हे नाथ! हे (पाप-ताप का हरण करने वाले) हरे ! उसे मारकर विषय रूपी वन में भूल पड़े हुए इन पामर अनाथ जीवों की रक्षा कीजिए ॥ ४ ॥

बहु रोग बियोगन्हि लोग हए । भवदंघ्रि निरादर के फल ए ॥
भव सिंधु अगाध परे नर ते । पद पंकज प्रेम न जे करते ॥ ५ ॥

लोग बहुत से रोगों और वियोगों (दुःखों) से मारे हुए हैं । ये सब आपके चरणों के निरादर के फल हैं । जो मनुष्य आपके चरणकमलों में प्रेम नहीं करते, वे अथाह भवसागर में पड़े हैं ॥ ५ ॥

अति दीन मलीन दुखी नितहीं । जिन्ह कें पद पंकज प्रीति नहीं ॥
अवलंब भवंत कथा जिन्ह कें । प्रिय संत अनंत सदा तिन्ह कें ॥ ६ ॥

जिन्हें आपके चरणकमलों में प्रीति नहीं है वे नित्य ही अत्यंत दीन, मलिन (उदास) और दुःखी रहते हैं और जिन्हें आपकी लीला कथा का आधार है, उनको संत और भगवान् सदा प्रिय लगने लगते हैं ॥ ६ ॥

नहिं राग न लोभ न मान सदा । तिन्ह कें सम बैभव वा बिपदा ॥
एहि ते तव सेवक होत मुदा । मुनि त्यागत जोग भरोस सदा ॥ ७ ॥

उनमें न राग (आसक्ति) है, न लोभ, न मान है, न मद । उनको संपत्ति सुख और विपत्ति (दुःख) समान है । इसी से मुनि लोग योग (साधन) का भरोसा सदा के लिए त्याग देते हैं और प्रसन्नता के साथ आपके सेवक बन जाते हैं ॥ ७ ॥

करि प्रेम निरंतर नेम लिएँ । पद पंकज सेवत सुद्ध हिएँ ॥
सम मानि निरादर आदरही । सब संतु सुखी बिचरंति मही ॥ ८ ॥

वे प्रेमपूर्वक नियम लेकर निरंतर शुद्ध हृदय से आपके चरणकमलों की सेवा करते रहते हैं और निरादर और आदर को समान मानकर वे सब संत सुखी होकर पृथ्वी पर विचरते हैं ॥ ८ ॥

मुनि मानस पंकज भृंग भजे । रघुबीर महा रनधीर अजे ॥
तव नाम जपामि नमामि हरी । भव रोग महागद मान अरी ॥ ९ ॥

हे मुनियों के मन रूपी कमल के भ्रमर! हे महान् रणधीर एवं अजेय श्री रघुवीर! मैं आपको भजता हूँ (आपकी शरण ग्रहण करता हूँ) हे हरि! आपका नाम जपता हूँ और आपको नमस्कार करता हूँ । आप जन्म-मरण रूपी रोग की महान् औषध और अभिमान के शत्रु हैं ॥ ९ ॥

गुन सील कृपा परमायतनं । प्रनमामि निरंतर श्रीरमनं ॥
रघुनंद निकंदय द्वंद्वघनं । महिपाल बिलोकय दीन जनं ॥ १० ॥

आप गुण, शील और कृपा के परम स्थान हैं । आप लक्ष्मीपति हैं, मैं आपको निरंतर प्रणाम करता हूँ । हे रघुनन्दन! (आप जन्म-मरण, सुख-दुःख, राग-द्वेषादि) द्वंद्व समूहों का नाश कीजिए । हे पृथ्वी का पालन करने वाले राजन् । इस दीन जन की ओर भी दृष्टि डालिए ॥ १० ॥

दोहा :

बार बार बर मागउँ हरषि देहु श्रीरंग ।
पद सरोज अनपायनी भगति सदा सतसंग ॥ १४ क ॥

मैं आपसे बार-बार यही वरदान माँगता हूँ कि मुझे आपके चरणकमलों की अचल भक्ति और आपके भक्तों का सत्संग सदा प्राप्त हो । हे लक्ष्मीपते! हर्षित होकर मुझे यही दीजिए ॥

बरनि उमापति राम गुन हरषि गए कैलास ।
तब प्रभु कपिन्ह दिवाए सब बिधि सुखप्रद बास ॥ १४ ख ॥

श्री रामचंद्रजी के गुणों का वर्णन करके उमापति महादेवजी हर्षित होकर कैलास को चले गए । तब प्रभु ने वानरों को सब प्रकार से सुख देने वाले डेरे दिलवाए ॥ १४ (ख) ॥

चौपाई :

सुनु खगपति यह कथा पावनी । त्रिबिध ताप भव भय दावनी ॥
महाराज कर सुभ अभिषेका । सुनत लहहिं नर बिरति बिबेका ॥ १ ॥

हे गरुड़जी ! सुनिए यह कथा (सबको) पवित्र करने वाली है, (दैहिक, दैविक, भौतिक) तीनों प्रकार के तापों का और जन्म-मृत्यु के भय का नाश करने वाली है । महाराज श्री रामचंद्रजी के कल्याणमय राज्याभिषेक का चरित्र (निष्कामभाव से) सुनकर मनुष्य वैराग्य और ज्ञान प्राप्त करते हैं ॥ १ ॥

जे सकाम नर सुनहिं जे गावहिं । सुख संपति नाना बिधि पावहिं ॥
सुर दुर्लभ सुख करि जग माहीं । अंतकाल रघुपति पुर जाहीं ॥ २ ॥

और जो मनुष्य सकामभाव से सुनते और जो गाते हैं, वे अनेकों प्रकार के सुख और संपत्ति पाते हैं । वे जगत् में देवदुर्लभ सुखों को भोगकर अंतकाल में श्री रघुनाथजी के परमधाम को जाते हैं ॥ २ ॥

सुनहिं बिमुक्त बिरत अरु बिषई । लहहिं भगति गति संपति नई ॥
खगपति राम कथा मैं बरनी । स्वमति बिलास त्रास दुख हरनी ॥ ३ ॥

इसे जो जीवन्मुक्त, विरक्त और विषयी सुनते हैं, वे (क्रमशः) भक्ति, मुक्ति और नवीन संपत्ति (नित्य नए भोग) पाते हैं । हे पक्षीराज गरुड़जी! मैंने अपनी बुद्धि की पहुँच के अनुसार रामकथा वर्णन की है, जो (जन्म-मरण) भय और दुःख हरने वाली है ॥ ३ ॥

बिरति बिबेक भगति दृढ़ करनी । मोह नदी कहँ सुंदर तरनी ॥
नित नव मंगल कौसलपुरी । हरषित रहहिं लोग सब कुरी ॥ ४ ॥

यह वैराग्य, विवेक और भक्ति को दृढ़ करने वाली है तथा मोह रूपी नदी के (पार करने) के लिए सुंदर नाव है । अवधपुरी में नित नए मंगलोत्सव होते हैं । सभी वर्गों के लोग हर्षित रहते हैं ॥ ४ ॥

नित नइ प्रीति राम पद पंकज । सब कें जिन्हहि नमत सिव मुनि अज ॥
मंगन बहु प्रकार पहिराए । द्विजन्ह दान नाना बिधि पाए ॥ ५ ॥

श्री रामजी के चरणकमलों में- जिन्हें श्री शिवजी, मुनिगण और ब्रह्माजी भी नमस्कार करते हैं, सबकी नित्य नवीन प्रीति है । भिक्षुकों को बहुत प्रकार के वस्त्राभूषण पहनाए गए और ब्राह्मणों ने नाना प्रकार के दान पाए ॥ ५ ॥