दोहा :
बारि मथें घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल ।
बिनु हरि भजन न तव तरिअ यह सिद्धांत अपेल ॥ १२२ क ॥
जल को मथने से भले ही घी उत्पन्न हो जाए और बालू (को पेरने) से भले ही तेल निकल आवे, परंतु श्री हरि के भजन बिना संसार रूपी समुद्र से नहीं तरा जा सकता, यह सिद्धांत अटल है ॥ १२२ (क) ॥
मसकहि करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन ।
अस बिचारि तजि संसय रामहि भजहिं प्रबीन ॥ १२२ ख ॥
प्रभु मच्छर को ब्रह्मा कर सकते हैं और ब्रह्मा को मच्छर से भी तुच्छ बना सकते हैं । ऐसा विचार कर चतुर पुरुष सब संदेह त्यागकर श्री रामजी को ही भजते हैं ॥ १२२ (ख) ॥
श्लोक :
विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे ।
हरिं नरा भजन्ति येऽतिदुस्तरं तरन्ति ते ॥ १२२ ग ॥
मैं आपसे भली-भाँति निश्चित किया हुआ सिद्धांत कहता हूँ- मेरे वचन अन्यथा (मिथ्या) नहीं हैं कि जो मनुष्य श्री हरि का भजन करते हैं, वे अत्यंत दुस्तर संसार सागर को (सहज ही) पार कर जाते हैं ॥ १२२ (ग) ॥
चौपाई :
कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपा । ब्यास समास स्वमति अनुरूपा ॥
श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारी । राम भजिअ सब काज बिसारी ॥ १ ॥
हे नाथ! मैंने श्री हरि का अनुपम चरित्र अपनी बुद्धि के अनुसार कहीं विस्तार से और कहीं संक्षेप से कहा । हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी ! श्रुतियों का यही सिद्धांत है कि सब काम भुलाकर (छोड़कर) श्री रामजी का भजन करना चाहिए ॥ १ ॥
प्रभु रघुपति तजि सेइअ काही । मोहि से सठ पर ममता जाही ॥
तुम्ह बिग्यानरूप नहिं मोहा । नाथ कीन्हि मो पर अति छोहा ॥ २ ॥
प्रभु श्री रघुनाथजी को छो़ड़कर और किसका सेवन (भजन) किया जाए, जिनका मुझ जैसे मूर्ख पर भी ममत्व (स्नेह) है । हे नाथ! आप विज्ञान रूप हैं, आपको मोह नहीं है । आपने तो मुझ पर बड़ी कृपा की है ॥ २ ॥
पूँछिहु राम कथा अति पावनि । सुक सनकादि संभु मन भावनि ॥
सत संगति दुर्लभ संसारा । निमिष दंड भरि एकउ बारा ॥ ३ ॥
जो आपने मुझ से शुकदेवजी, सनकादि और शिवजी के मन को प्रिय लगने वाली अति पवित्र रामकथा पूछी । संसार में घड़ी भर का अथवा पल भर का एक बार का भी सत्संग दुर्लभ है ॥ ३ ॥
देखु गरु़ड़ निज हृदयँ बिचारी । मैं रघुबीर भजन अधिकारी ॥
सकुनाधम सब भाँति अपावन । प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन ॥ ४ ॥
हे गरुड़जी! अपने हृदय में विचार कर देखिए, क्या मैं भी श्री रामजी के भजन का अधिकारी हूँ? पक्षियों में सबसे नीच और सब प्रकार से अपवित्र हूँ, परंतु ऐसा होने पर भी प्रभु ने मुझको सारे जगत् को पवित्र करने वाला प्रसिद्ध कर दिया (अथवा प्रभु ने मुझको जगत्प्रसिद्ध पावन कर दिया) ॥ ४ ॥