चौपाई :
जे असि भगति जानि परिहरहीं । केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं ॥
ते जड़ कामधेनु गृहँ त्यागी । खोजत आकु फिरहिं पय लागी ॥ १ ॥
जो भक्ति की ऐसी महिमा जानकर भी उसे छोड़ देते हैं और केवल ज्ञान के लिए श्रम (साधन) करते हैं, वे मूर्ख घर पर खड़ी हुई कामधेनु को छोड़कर दूध के लिए मदार के पेड़ को खोजते फिरते हैं ॥ १ ॥
सुनु खगेस हरि भगति बिहाई । जे सुख चाहहिं आन उपाई ॥
ते सठ महासिंधु बिनु तरनी । पैरि पार चाहहिं जड़ करनी ॥ २ ॥
हे पक्षीराज! सुनिए, जो लोग श्री हरि की भक्ति को छोड़कर दूसरे उपायों से सुख चाहते हैं, वे मूर्ख और जड़ करनी वाले (अभागे) बिना ही जहाज के तैरकर महासमुद्र के पार जाना चाहते हैं ॥ २ ॥
सुनि भसुंडि के बचन भवानी । बोलेउ गरुड़ हरषि मृदु बानी ॥
तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं । संसय सोक मोह भ्रम नाहीं ॥ ३ ॥
(शिवजी कहते हैं - ) हे भवानी! भुशुण्डिजी के वचन सुनकर गरुड़जी हर्षित होकर कोमल वाणी से बोले - हे प्रभो! आपके प्रसाद से मेरे हृदय में अब संदेह, शोक, मोह और कुछ भी नहीं रह गया ॥ ३ ॥
सुनेउँ पुनीत राम गुन ग्रामा । तुम्हरी कृपाँ लहेउँ बिश्रामा ॥
एक बात प्रभु पूँछउँ तोही । कहहु बुझाइ कृपानिधि मोही ॥ ४ ॥
मैंने आपकी कृपा से श्री रामचंद्रजी के पवित्र गुण समूहों को सुना और शांति प्राप्त की । हे प्रभो! अब मैं आपसे एक बात और पूछता हूँ । हे कृपासागर! मुझे समझाकर कहिए ॥ ४ ॥
कहहिं संत मुनि बेद पुराना । नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना ॥
सोइ मुनि तुम्ह सन कहेउ गोसाईं । नहिं आदरेहु भगति की नाईं ॥ ५ ॥
संत मुनि, वेद और पुराण यह कहते हैं कि ज्ञान के समान दुर्लभ कुछ भी नहीं है । हे गोसाईं! वही ज्ञान मुनि ने आपसे कहा, परंतु आपने भक्ति के समान उसका आदर नहीं किया ॥ ५ ॥
ग्यानहि भगतिहि अंतर केता । सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता ॥
सुनि उरगारि बचन सुख माना । सादर बोलेउ काग सुजाना ॥ ६ ॥
हे कृपा के धाम! हे प्रभो! ज्ञान और भक्ति में कितना अंतर है? यह सब मुझसे कहिए । गरुड़जी के वचन सुनकर सुजान काकभुशुण्डिजी ने सुख माना और आदर के साथ कहा - ॥ ६ ॥
भगतिहि ग्यानहि नहिं कछु भेदा । उभय हरहिं भव संभव खेदा ॥
नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर । सावधान सोउ सुनु बिहंगबर ॥ ७ ॥
भक्ति और ज्ञान में कुछ भी भेद नहीं है । दोनों ही संसार से उत्पन्न क्लेशों को हर लेते हैं । हे नाथ! मुनीश्वर इनमें कुछ अंतर बतलाते हैं । हे पक्षीश्रेष्ठ! उसे सावधान होकर सुनिए ॥ ७ ॥
ग्यान बिराग जोग बिग्याना । ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना ॥
पुरुष प्रताप प्रबल सब भाँती । अबला अबल सहज जड़ जाती ॥ ८ ॥
हे हरि वाहन! सुनिए, ज्ञान, वैराग्य, योग, विज्ञान- ये सब पुरुष हैं । पुरुष का प्रताप सब प्रकार से प्रबल होता है । अबला (माया) स्वाभाविक ही निर्बल और जाति (जन्म) से ही जड़ (मूर्ख) होती है ॥ ८ ॥
दोहा :
पुरुष त्यागि सक नारिहि जो बिरक्त मति धीर ।
न तु कामी बिषयाबस बिमुख जो पद रघुबीर ॥ ११५ क ॥
परंतु जो वैराग्यवान् और धीरबुद्धि पुरुष हैं वही स्त्री को त्याग सकते हैं, न कि वे कामी पुरुष, जो विषयों के वश में हैं (उनके गुलाम हैं) और श्री रघुवीर के चरणों से विमुख हैं ॥ ११५ (क) ॥
सोरठा :
सोउ मुनि ग्याननिधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि ।
बिबस होइ हरिजान नारि बिष्नु माया प्रगट ॥ ११५ ख ॥
वे ज्ञान के भण्डार मुनि भी मृगनयनी (युवती स्त्री) के चंद्रमुख को देखकर विवश (उसके अधीन) हो जाते हैं । हे गरुड़जी! साक्षात् भगवान विष्णु की माया ही स्त्री रूप से प्रकट है ॥ ११५ (ख) ॥
चौपाई :
इहाँ न पच्छपात कछु राखउँ । बेद पुरान संत मत भाषउँ ॥
मोह न नारि नारि कें रूपा । पन्नगारि यह रीति अनूपा ॥ १ ॥
यहाँ मैं कुछ पक्षपात नहीं रखता । वेद, पुराण और संतों का मत (सिद्धांत) ही कहता हूँ । हे गरुड़जी! यह अनुपम (विलक्षण) रीति है कि एक स्त्री के रूप पर दूसरी स्त्री मोहित नहीं होती ॥ १ ॥
माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ । नारि बर्ग जानइ सब कोऊ ॥
पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी । माया खलु नर्तकी बिचारी ॥ २ ॥
आप सुनिए, माया और भक्ति- ये दोनों ही स्त्री वर्ग की हैं, यह सब कोई जानते हैं । फिर श्री रघुवीर को भक्ति प्यारी है । माया बेचारी तो निश्चय ही नाचने वाली (नटिनी मात्र) है ॥ २ ॥
भगतिहि सानुकूल रघुराया । ताते तेहि डरपति अति माया ॥
राम भगति निरुपम निरुपाधी । बसइ जासु उर सदा अबाधी ॥ ३ ॥
श्री रघुनाथजी भक्ति के विशेष अनुकूल रहते हैं । इसी से माया उससे अत्यंत डरती रहती है । जिसके हृदय में उपमारहित और उपाधिरहित (विशुद्ध) रामभक्ति सदा बिना किसी बाधा (रोक-टोक) के बसती है, ॥ ३ ॥
तेहि बिलोकि माया सकुचाई । करि न सकइ कछु निज प्रभुताई ॥
अस बिचारि जे मुनि बिग्यानी । जाचहिं भगति सकल सुख खानी ॥ ४ ॥
उसे देखकर माया सकुचा जाती है । उस पर वह अपनी प्रभुता कुछ भी नहीं कर (चला) सकती । ऐसा विचार कर ही जो विज्ञानी मुनि हैं, वे भी सब सुखों की खानि भक्ति की ही याचना करते हैं ॥ ४ ॥
दोहा :
यह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ ।
जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न होइ ॥ ११६ क ॥
श्री रघुनाथजी का यह रहस्य (गुप्त मर्म) जल्दी कोई भी नहीं जान पाता । श्री रघुनाथजी की कृपा से जो इसे जान जाता है, उसे स्वप्न में भी मोह नहीं होता ॥ ११६ (क) ॥
औरउ ग्यान भगति कर भेद सुनहु सुप्रबीन ।
जो सुनि होइ राम पद प्रीति सदा अबिछीन ॥ ११६ ख ॥
हे सुचतुर गरुड़जी! ज्ञान और भक्ति का और भी भेद सुनिए, जिसके सुनने से श्री रामजी के चरणों में सदा अविच्छिन्न (एकतार) प्रेम हो जाता है ॥ ११६ (ख) ॥
चौपाई :
सुनहु तात यह अकथ कहानी । समुझत बनइ न जाइ बखानी ॥
ईस्वर अंस जीव अबिनासी । चेतन अमल सहज सुख रासी ॥ १ ॥
हे तात! यह अकथनीय कहानी (वार्ता) सुनिए । यह समझते ही बनती है, कही नहीं जा सकती । जीव ईश्वर का अंश है । (अतएव) वह अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि है ॥ १ ॥
सो मायाबस भयउ गोसाईं । बँध्यो कीर मरकट की नाईं ॥
जड़ चेतनहि ग्रंथि परि गई । जदपि मृषा छूटत कठिनई ॥ २ ॥
हे गोसाईं ! वह माया के वशीभूत होकर तोते और वानर की भाँति अपने आप ही बँध गया । इस प्रकार जड़ और चेतन में ग्रंथि (गाँठ) पड़ गई । यद्यपि वह ग्रंथि मिथ्या ही है, तथापि उसके छूटने में कठिनता है ॥ २ ॥
तब ते जीव भयउ संसारी । छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी ॥
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई । छूट न अधिक अधिक अरुझाई ॥ ३ ॥
तभी से जीव संसारी (जन्मने-मरने वाला) हो गया । अब न तो गाँठ छूटती है और न वह सुखी होता है । वेदों और पुराणों ने बहुत से उपाय बतलाए हैं, पर वह (ग्रंथि) छूटती नहीं वरन अधिकाधिक उलझती ही जाती है ॥ ३ ॥
जीव हृदयँ तम मोह बिसेषी । ग्रंथि छूट किमि परइ न देखी ॥
अस संजोग ईस जब करई । तबहुँ कदाचित सो निरुअरई ॥ ४ ॥
जीव के हृदय में अज्ञान रूपी अंधकार विशेष रूप से छा रहा है, इससे गाँठ देख ही नहीं पड़ती, छूटे तो कैसे? जब कभी ईश्वर ऐसा संयोग (जैसा आगे कहा जाता है) उपस्थित कर देते हैं तब भी कदाचित् ही वह (ग्रंथि) छूट पाती है ॥ ४ ॥
सात्विक श्रद्धा धेनु सुहाई । जौं हरि कृपाँ हृदयँ बस आई ॥
जप तप ब्रत जम नियम अपारा । जे श्रुति कह सुभ धर्म अचारा ॥ ५ ॥
श्री हरि की कृपा से यदि सात्विकी श्रद्धा रूपी सुंदर गो हृदय रूपी घर में आकर बस जाए, असंख्य जप, तप व्रत यम और नियमादि शुभ धर्म और आचार (आचरण), जो श्रुतियों ने कहे हैं, ॥ ५ ॥
तेइ तृन हरित चरै जब गाई । भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई ॥
नोइ निबृत्ति पात्र बिस्वासा । निर्मल मन अहीर निज दासा ॥ ६ ॥
उन्हीं (धर्माचार रूपी) हरे तृणों (घास) को जब वह गो चरे और आस्तिक भाव रूपी छोटे बछड़े को पाकर वह पेन्हावे । निवृत्ति (सांसारिक विषयों से और प्रपंच से हटना) नोई (गो के दुहते समय पिछले पैर बाँधने की रस्सी) है, विश्वास (दूध दुहने का) बरतन है, निर्मल (निष्पाप) मन जो स्वयं अपना दास है । (अपने वश में है), दुहने वाला अहीर है ॥ ६ ॥
परम धर्ममय पय दुहि भाई । अवटै अनल अकाम बनाई ॥
तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै । धृति सम जावनु देइ जमावै ॥ ७ ॥
हे भाई, इस प्रकार (धर्माचार में प्रवृत्त सात्विकी श्रद्धा रूपी गो से भाव, निवृत्ति और वश में किए हुए निर्मल मन की सहायता से) परम धर्ममय दूध दुहकर उसे निष्काम भाव रूपी अग्नि पर भली-भाँति औटावें । फिर क्षमा और संतोष रूपी हवा से उसे ठंडा करें और धैर्य तथा शम (मन का निग्रह) रूपी जामन देकर उसे जमावें ॥ ७ ॥
मुदिताँ मथै बिचार मथानी । दम अधार रजु सत्य सुबानी ॥
तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता । बिमल बिराग सुभग सुपुनीता ॥ ८ ॥
तब मुदिता (प्रसन्नता) रूपी कमोरी में तत्व विचार रूपी मथानी से दम (इंद्रिय दमन) के आधार पर (दम रूपी खंभे आदि के सहारे) सत्य और सुंदर वाणी रूपी रस्सी लगाकर उसे मथें और मथकर तब उसमें से निर्मल, सुंदर और अत्यंत पवित्र वैराग्य रूपी मक्खन निकाल लें ॥ ८ ॥
दोहा :
जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ ।
बुद्धि सिरावै ग्यान घृत ममता मल जरि जाइ ॥ ११७ क ॥
तब योग रूपी अग्नि प्रकट करके उसमें समस्त शुभाशुभ कर्म रूपी ईंधन लगा दें (सब कर्मों को योग रूपी अग्नि में भस्म कर दें) । जब (वैराग्य रूपी मक्खन का) ममता रूपी मल, जल जाए, तब (बचे हुए) ज्ञान रूपी घी को (निश्चयात्मिका) बुद्धि से ठंडा करें ॥ ११७ (क) ॥
तब बिग्यानरूपिनी बुद्धि बिसद घृत पाइ ।
चित्त दिआ भरि धरै दृढ़ समता दिअटि बनाइ ॥ ११७ ख ॥
तब विज्ञान रूपिणी बुद्धि उस (ज्ञान रूपी) निर्मल घी को पाकर उससे चित्त रूपी दीए को भरकर, समता की दीवट बनाकर, उस पर उसे दृढ़तापूर्वक (जमाकर) रखें ॥ ११७ (ख) ॥
तीनि अवस्था तीनि गुन तेहि कपास तें काढ़ि ।
तूल तुरीय सँवारि पुनि बाती करै सुगाढ़ि ॥ ११७ ग ॥
(जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति) तीनों अवस्थाएँ और (सत्त्व, रज और तम) तीनों गुण रूपी कपास से तुरीयावस्था रूपी रूई को निकालकर और फिर उसे सँवारकर उसकी सुंदर कड़ी बत्ती बनाएँ ॥ ११७ (ग) ॥
सोरठा :
एहि बिधि लेसै दीप तेज रासि बिग्यानमय ।
जातहिं जासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब ॥ ११७ घ ॥
इस प्रकार तेज की राशि विज्ञानमय दीपक को जलावें, जिसके समीप जाते ही मद आदि सब पतंगे जल जाएँ ॥ ११७ (घ) ॥
चौपाई :
सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा । दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा ॥
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा । तब भव मूल भेद भ्रम नासा ॥ १ ॥
‘सोऽहमस्मि’ (वह ब्रह्म मैं हूँ) यह जो अखंड (तैलधारावत् कभी न टूटने वाली) वृत्ति है, वही (उस ज्ञानदीपक की) परम प्रचंड दीपशिखा (लौ) है । (इस प्रकार) जब आत्मानुभव के सुख का सुंदर प्रकाश फैलता है, तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रम का नाश हो जाता है, ॥ १ ॥
प्रबल अबिद्या कर परिवारा । मोह आदि तब मिटइ अपारा ॥
तब सोइ बुद्धि पाइ उँजिआरा । उर गृहँ बैठि ग्रंथि निरुआरा ॥ २ ॥
और महान् बलवती अविद्या के परिवार मोह आदि का अपार अंधकार मिट जाता है । तब वही (विज्ञानरूपिणी) बुद्धि (आत्मानुभव रूप) प्रकाश को पाकर हृदय रूपी घर में बैठकर उस जड़ चेतन की गाँठ को खोलती है ॥ २ ॥
छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई । तब यह जीव कृतारथ होई ॥
छोरत ग्रंथ जानि खगराया । बिघ्न नेक करइ तब माया ॥ ३ ॥
यदि वह (विज्ञान रूपिणी बुद्धि) उस गाँठ को खोलने पावे, तब यह जीव कृतार्थ हो, परंतु हे पक्षीराज गरुड़जी! गाँठ खोलते हुए जानकर माया फिर अनेकों विघ्न करती है ॥ ३ ॥
रिद्धि-सिद्धि प्रेरइ बहु भाई । बुद्धिहि लोभ दिखावहिं आई ॥
कल बल छल करि जाहिं समीपा । अंचल बात बुझावहिं दीपा ॥ ४ ॥
हे भाई! वह बहुत सी ऋद्धि-सिद्धियों को भेजती है, जो आकर बुद्धि को लोभ दिखाती हैं और वे ऋद्धि-सिद्धियाँ कल (कला), बल और छल करके समीप जाती और आँचल की वायु से उस ज्ञान रूपी दीपक को बुझा देती हैं ॥ ४ ॥
होइ बुद्धि जौं परम सयानी । तिन्ह तन चितव न अनहित जानी ॥
जौं तेहि बिघ्न बुद्धि नहिं बाधी । तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी ॥ ५ ॥
यदि बुद्धि बहुत ही सयानी हुई, तो वह उन (ऋद्धि-सिद्धियों) को अहितकर (हानिकर) समझकर उनकी ओर ताकती नहीं । इस प्रकार यदि माया के विघ्नों से बुद्धि को बाधा न हुई, तो फिर देवता उपाधि (विघ्न) करते हैं ॥ ५ ॥
इंद्री द्वार झरोखा नाना । तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना ॥
आवत देखहिं बिषय बयारी । ते हठि देहिं कपाट उघारी ॥ ६ ॥
इंद्रियों के द्वार हृदय रूपी घर के अनेकों झरोखे हैं । वहाँ-वहाँ (प्रत्येक झरोखे पर) देवता थाना किए (अड्डा जमाकर) बैठे हैं । ज्यों ही वे विषय रूपी हवा को आते देखते हैं, त्यों ही हठपूर्वक किवाड़ खोल देते हैं ॥ ६ ॥
जब सो प्रभंजन उर गृहँ जाई । तबहिं दीप बिग्यान बुझाई ॥
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा । बुद्धि बिकल भइ बिषय बतासा ॥ ७ ॥
सज्यों ही वह तेज हवा हृदय रूपी घर में जाती है, त्यों ही वह विज्ञान रूपी दीपक बुझ जाता है । गाँठ भी नहीं छूटी और वह (आत्मानुभव रूप) प्रकाश भी मिट गया । विषय रूपी हवा से बुद्धि व्याकुल हो गई (सारा किया-कराया चौपट हो गया) ॥ ७ ॥
इंद्रिन्ह सुरन्ह न ग्यान सोहाई । बिषय भोग पर प्रीति सदाई ॥
बिषय समीर बुद्धि कत भोरी । तेहि बिधि दीप को बार बहोरी ॥ ८ ॥
इंद्रियों और उनके देवताओं को ज्ञान (स्वाभाविक ही) नहीं सुहाता, क्योंकि उनकी विषय-भोगों में सदा ही प्रीति रहती है और बुद्धि को भी विषय रूपी हवा ने बावली बना दिया । तब फिर (दोबारा) उस ज्ञान दीप को उसी प्रकार से कौन जलावे? ॥ ८ ॥
दोहा :
तब फिरि जीव बिबिधि बिधि पावइ संसृति क्लेस ।
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस ॥ ११८ क ॥
(इस प्रकार ज्ञान दीपक के बुझ जाने पर) तब फिर जीव अनेकों प्रकार से संसृति (जन्म-मरणादि) के क्लेश पाता है । हे पक्षीराज! हरि की माया अत्यंत दुस्तर है, वह सहज ही में तरी नहीं जा सकती ॥ ११८ (क) ॥
कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन बिबेक ।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक ॥ ११८ ख ॥
ज्ञान कहने (समझाने) में कठिन, समझने में कठिन और साधने में भी कठिन है । यदि घुणाक्षर न्याय से (संयोगवश) कदाचित् यह ज्ञान हो भी जाए, तो फिर (उसे बचाए रखने में) अनेकों विघ्न हैं ॥ ११८ (ख) ॥
चौपाई :
ग्यान पंथ कृपान कै धारा । परत खगेस होइ नहिं बारा ॥
जो निर्बिघ्न पंथ निर्बहई । सो कैवल्य परम पद लहई ॥ १ ॥
ज्ञान का मार्ग कृपाण (दोधारी तलवार) की धार के समान है । हे पक्षीराज! इस मार्ग से गिरते देर नहीं लगती । जो इस मार्ग को निर्विघ्न निबाह ले जाता है, वही कैवल्य (मोक्ष) रूप परमपद को प्राप्त करता है ॥ १ ॥
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद । संत पुरान निगम आगम बद ॥
राम भजत सोइ मुकुति गोसाईं । अनइच्छित आवइ बरिआईं ॥ २ ॥
संत, पुराण, वेद और (तंत्र आदि) शास्त्र (सब) यह कहते हैं कि कैवल्य रूप परमपद अत्यंत दुर्लभ है, किंतु हे गोसाईं! वही (अत्यंत दुर्लभ) मुक्ति श्री रामजी को भजने से बिना इच्छा किए भी जबर्दस्ती आ जाती है ॥ २ ॥
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई । कोटि भाँति कोउ करै उपाई ॥
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई । रहि न सकइ हरि भगति बिहाई ॥ ३ ॥
जैसे स्थल के बिना जल नहीं रह सकता, चाहे कोई करोड़ों प्रकार के उपाय क्यों न करे । वैसे ही, हे पक्षीराज! सुनिए, मोक्षसुख भी श्री हरि की भक्ति को छोड़कर नहीं रह सकता ॥ ३ ॥
अस बिचारि हरि भगत सयाने । मुक्ति निरादर भगति लुभाने ॥
भगति करत बिनु जतन प्रयासा । संसृति मूल अबिद्या नासा ॥ ४ ॥
ऐसा विचार कर बुद्धिमान् हरि भक्त भक्ति पर लुभाए रहकर मुक्ति का तिरस्कार कर देते हैं । भक्ति करने से संसृति (जन्म-मृत्यु रूप संसार) की जड़ अविद्या बिना ही यंत्र और परिश्रम के (अपने आप) वैसे ही नष्ट हो जाती है, ॥ ४ ॥
भोजन करिअ तृपिति हित लागी । जिमि सो असन पचवै जठरागी ॥
असि हरि भगति सुगम सुखदाई । को अस मूढ़ न जाहि सोहाई ॥ ५ ॥
जैसे भोजन किया तो जाता है तृप्ति के लिए और उस भोजन को जठराग्नि अपने आप (बिना हमारी चेष्टा के) पचा डालती है, ऐसी सुगम और परम सुख देने वाली हरि भक्ति जिसे न सुहावे, ऐसा मूढ़ कौन होगा? ॥ ५ ॥
दोहा :
सेवक सेब्य भाव बिनु भव न तरिअ उरगारि ।
भजहु राम पद पंकज अस सिद्धांत बिचारि ॥ ११९ क ॥
हे सर्पों के शत्रु गरुड़जी! मैं सेवक हूँ और भगवान् मेरे सेव्य (स्वामी) हैं, इस भाव के बिना संसार रूपी समुद्र से तरना नहीं हो सकता । ऐसा सिद्धांत विचारकर श्री रामचंद्रजी के चरण कमलों का भजन कीजिए ॥ ११९ (क) ॥
जो चेतन कहँ जड़ करइ जड़हि करइ चैतन्य ।
अस समर्थ रघुनायकहि भजहिं जीव ते धन्य ॥ ११९ ख ॥
जो चेतन को जड़ कर देता है और जड़ को चेतन कर देता है, ऐसे समर्थ श्री रघुनाथजी को जो जीव भजते हैं, वे धन्य हैं ॥ ११९ (ख) ॥
चौपाई :
कहेउँ ग्यान सिद्धांत बुझाई । सुनहु भगति मनि कै प्रभुताई ॥
राम भगति चिंतामनि सुंदर । बसइ गरुड़ जाके उर अंतर ॥ १ ॥
मैंने ज्ञान का सिद्धांत समझाकर कहा । अब भक्ति रूपी मणि की प्रभुता (महिमा) सुनिए । श्री रामजी की भक्ति सुंदर चिंतामणि है । हे गरुड़जी! यह जिसके हृदय के अंदर बसती है, ॥ १ ॥
परम प्रकास रूप दिन राती । नहिं कछु चहिअ दिआ घृत बाती ॥
मोह दरिद्र निकट नहिं आवा । लोभ बात नहिं ताहि बुझावा ॥ २ ॥
वह दिन-रात (अपने आप ही) परम प्रकाश रूप रहता है । उसको दीपक, घी और बत्ती कुछ भी नहीं चाहिए । (इस प्रकार मणि का एक तो स्वाभाविक प्रकाश रहता है) फिर मोह रूपी दरिद्रता समीप नहीं आती (क्योंकि मणि स्वयं धनरूप है) और (तीसरे) लोभ रूपी हवा उस मणिमय दीप को बुझा नहीं सकती (क्योंकि मणि स्वयं प्रकाश रूप है, वह किसी दूसरे की सहायता से प्रकाश नहीं करती) ॥ २ ॥
प्रबल अबिद्या तम मिटि जाई । हारहिं सकल सलभ समुदाई ॥
खल कामादि निकट नहिं जाहीं । बसइ भगति जाके उर माहीं ॥ ३ ॥
(उसके प्रकाश से) अविद्या का प्रबल अंधकार मिट जाता है । मदादि पतंगों का सारा समूह हार जाता है । जिसके हृदय में भक्ति बसती है, काम, क्रोध और लोभ आदि दुष्ट तो उसके पास भी नहीं जाते ॥ ३ ॥
गरल सुधासम अरि हित होई । तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई ॥
दब्यापहिं मानस रोग न भारी । जिन्ह के बस सब जीव दुखारी ॥ ४ ॥
उसके लिए विष अमृत के समान और शत्रु मित्र हो जाता है । उस मणि के बिना कोई सुख नहीं पाता । बड़े-बड़े मानस रोग, जिनके वश होकर सब जीव दुःखी हो रहे हैं, उसको नहीं व्यापते ॥ ४ ॥
राम भगति मनि उर बस जाकें । दुख लवलेस न सपनेहुँ ताकें ॥
चतुर सिरोमनि तेइ जग माहीं । जे मनि लागि सुजतन कराहीं ॥ ५ ॥
श्री रामभक्ति रूपी मणि जिसके हृदय में बसती है, उसे स्वप्न में भी लेशमात्र दुःख नहीं होता । जगत में वे ही मनुष्य चतुरों के शिरोमणि हैं जो उस भक्ति रूपी मणि के लिए भली-भाँति यत्न करते हैं ॥ ५ ॥
सो मनि जदपि प्रगट जग अहई । राम कृपा बिनु नहिं कोउ लहई ॥
सुगम उपाय पाइबे केरे । नर हतभाग्य देहिं भटभेरे ॥ ६ ॥
यद्यपि वह मणि जगत् में प्रकट (प्रत्यक्ष) है, पर बिना श्री रामजी की कृपा के उसे कोई पा नहीं सकता । उसके पाने के उपाय भी सुगम ही हैं, पर अभागे मनुष्य उन्हें ठुकरा देते हैं ॥ ६ ॥
पावन पर्बत बेद पुराना । राम कथा रुचिराकर नाना ॥
मर्मी सज्जन सुमति कुदारी । ग्यान बिराग नयन उरगारी ॥ ७ ॥
वेद-पुराण पवित्र पर्वत हैं । श्री रामजी की नाना प्रकार की कथाएँ उन पर्वतों में सुंदर खानें हैं । संत पुरुष (उनकी इन खानों के रहस्य को जानने वाले) मर्मी हैं और सुंदर बुद्धि (खोदने वाली) कुदाल है । हे गरुड़जी! ज्ञान और वैराग्य ये दो उनके नेत्र हैं ॥ ७ ॥
भाव सहित खोजइ जो प्रानी । पाव भगति मनि सब सुख खानी ॥
मोरें मन प्रभु अस बिस्वासा । राम ते अधिक राम कर दासा ॥ ८ ॥
जो प्राणी उसे प्रेम के साथ खोजता है, वह सब सुखों की खान इस भक्ति रूपी मणि को पा जाता है । हे प्रभो! मेरे मन में तो ऐसा विश्वास है कि श्री रामजी के दास श्री रामजी से भी बढ़कर हैं ॥ ८ ॥
राम सिंधु घन सज्जन धीरा । चंदन तरु हरि संत समीरा ॥
सब कर फल हरि भगति सुहाई । सो बिनु संत न काहूँ पाई ॥ ९ ॥
श्री रामचंद्रजी समुद्र हैं तो धीर संत पुरुष मेघ हैं । श्री हरि चंदन के वृक्ष हैं तो संत पवन हैं । सब साधनों का फल सुंदर हरि भक्ति ही है । उसे संत के बिना किसी ने नहीं पाया ॥ ९ ॥
अस बिचारि जोइ कर सतसंगा । राम भगति तेहि सुलभ बिहंगा ॥ १० ॥
ऐसा विचार कर जो भी संतों का संग करता है, हे गरुड़जी उसके लिए श्री रामजी की भक्ति सुलभ हो जाती है ॥ १० ॥
दोहा :
ब्रह्म पयोनिधि मंदर ग्यान संत सुर आहिं ।
कथा सुधा मथि काढ़हिं भगति मधुरता जाहिं ॥ १२० क ॥
ब्रह्म (वेद) समुद्र है, ज्ञान मंदराचल है और संत देवता हैं, जो उस समुद्र को मथकर कथा रूपी अमृत निकालते हैं, जिसमें भक्ति रूपी मधुरता बसी रहती है ॥ १२० (क) ॥
बिरति चर्म असि ग्यान मद लोभ मोह रिपु मारि ।
जय पाइअ सो हरि भगति देखु खगेस बिचारि ॥ १२० ख ॥
वैराग्य रूपी ढाल से अपने को बचाते हुए और ज्ञान रूपी तलवार से मद, लोभ और मोह रूपी वैरियों को मारकर जो विजय प्राप्त करती है, वह हरि भक्ति ही है, हे पक्षीराज! इसे विचार कर देखिए ॥ १२० (ख) ॥