दोहा :
सुनि बिनती सर्बग्य सिव देखि बिप्र अनुरागु ।
पुनि मंदिर नभबानी भइ द्विजबर बर मागु ॥ १०८ क ॥
सर्वज्ञ शिवजी ने विनती सुनी और ब्राह्मण का प्रेम देखा । तब मंदिर में आकाशवाणी हुई कि हे द्विजश्रेष्ठ! वर माँगो ॥ १०८ (क) ॥
जौं प्रसन्न प्रभो मो पर नाथ दीन पर नेहु ।
निज पद भगति देइ प्रभु पुनि दूसर बर देहु ॥ १०८ ख ॥
(ब्राह्मण ने कहा - ) हे प्रभो! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं और हे नाथ! यदि इस दीन पर आपका स्नेह है, तो पहले अपने चरणों की भक्ति देकर फिर दूसरा वर दीजिए ॥ १०८ (ख) ॥
तव माया बस जीव जड़ संतत फिरइ भुलान ।
तेहि पर क्रोध न करिअ प्रभु कृपासिंधु भगवान ॥ १०८ ग ॥
हे प्रभो! यह अज्ञानी जीव आपकी माया के वश होकर निरंतर भूला फिरता है । हे कृपा के समुद्र भगवान्! उस पर क्रोध न कीजिए ॥ १०८ (ग) ॥
संकर दीनदयाल अब एहि पर होहु कृपाल ।
साप अनुग्रह होइ जेहिं नाथ थोरेहीं काल ॥ १०८ घ ॥
हे दीनों पर दया करने वाले (कल्याणकारी) शंकर! अब इस पर कृपालु होइए (कृपा कीजिए), जिससे हे नाथ! थोड़े ही समय में इस पर शाप के बाद अनुग्रह (शाप से मुक्ति) हो जाए ॥ १०८ (घ) ॥
चौपाई :
एहि कर होइ परम कल्याना । सोइ करहु अब कृपानिधाना ॥
बिप्र गिरा सुनि परहित सानी । एवमस्तु इति भइ नभबानी ॥ १ ॥
हे कृपानिधान! अब वही कीजिए, जिससे इसका परम कल्याण हो । दूसरे के हित से सनी हुई ब्राह्मण की वाणी सुनकर फिर आकाशवाणी हुई- ‘एवमस्तु’ (ऐसा ही हो) ॥ १ ॥
जदपि कीन्ह एहिं दारुन पापा । मैं पुनि दीन्हि कोप करि सापा ॥
तदपि तुम्हारि साधुता देखी । करिहउँ एहि पर कृपा बिसेषी ॥ २ ॥
यद्यपि इसने भयानक पाप किया है और मैंने भी इसे क्रोध करके शाप दिया है, तो भी तुम्हारी साधुता देखकर मैं इस पर विशेष कृपा करूँगा ॥ २ ॥
छमासील जे पर उपकारी । ते द्विज मोहि प्रिय जथा खरारी ॥
मोर श्राप द्विज ब्यर्थ न जाइहि । जन्म सहस अवस्य यह पाइहि ॥ ३ ॥
हे द्विज! जो क्षमाशील एवं परोपकारी होते हैं, वे मुझे वैसे ही प्रिय हैं जैसे खरारि श्री रामचंद्रजी । हे द्विज! मेरा शाप व्यर्थ नहीं जाएगा । यह हजार जन्म अवश्य पाएगा ॥ ३ ॥
जनमत मरत दुसह दुख होई । एहि स्वल्पउ नहिं ब्यापिहि सोई ॥
कवनेउँ जन्म मिटिहि नहिं ग्याना । सुनहि सूद्र मम बचन प्रवाना ॥ ४ ॥
परंतु जन्मने और मरने में जो दुःसह दुःख होता है, इसको वह दुःख जरा भी न व्यापेगा और किसी भी जन्म में इसका ज्ञान नहीं मिटेगा । हे शूद्र! मेरा प्रामाणिक (सत्य) वचन सुन ॥ ४ ॥
रघुपति पुरीं जन्म तव भयऊ । पुनि मैं मम सेवाँ मन दयऊ ॥
पुरी प्रभाव अनुग्रह मोरें । राम भगति उपजिहि उर तोरें ॥ ५ ॥
(प्रथम तो) तेरा जन्म श्री रघुनाथजी की पुरी में हुआ । फिर तूने मेरी सेवा में मन लगाया । पुरी के प्रभाव और मेरी कृपा से तेरे हृदय में रामभक्ति उत्पन्न होगी ॥ ५ ॥
सुनु मम बचन सत्य अब भाई । हरितोषन ब्रत द्विज सेवकाई ॥
अब जनि करहि बिप्र अपमाना । जानेसु संत अनंत समाना ॥ ६ ॥
हे भाई! अब मेरा सत्य वचन सुन । द्विजों की सेवा ही भगवान् को प्रसन्न करने वाला व्रत है । अब कभी ब्राह्मण का अपमान न करना । संतों को अनंत श्री भगवान् ही के समान जानना ॥ ६ ॥
इंद्र कुलिस मम सूल बिसाला । कालदंड हरि चक्र कराला ॥
जो इन्ह कर मारा नहिं मरई । बिप्र द्रोह पावक सो जरई ॥ ७ ॥
इंद्र के वज्र, मेरे विशाल त्रिशूल, काल के दंड और श्री हरि के विकराल चक्र के मारे भी जो नहीं मरता, वह भी विप्रद्रोह रूपी अग्नि से भस्म हो जाता है ॥ ७ ॥
अस बिबेक राखेहु मन माहीं । तुम्ह कहँ जग दुर्लभ कछु नाहीं ॥
औरउ एक आसिषा मोरी । अप्रतिहत गति होइहि तोरी ॥ ८ ॥
ऐसा विवेक मन में रखना । फिर तुम्हारे लिए जगत् में कुछ भी दुर्लभ न होगा । मेरा एक और भी आशीर्वाद है कि तुम्हारी सर्वत्र अबाध गति होगी (अर्थात् तुम जहाँ जाना चाहोगे, वहीं बिना रोक-टोक के जा सकोगे) ॥ ८ ॥
दोहा :
सुनि सिव बचन हरषि गुर एवमस्तु इति भाषि ।
मोहि प्रबोधि गयउ गृह संभु चरन उर राखि ॥ १०९ क ॥
(आकाशवाणी के द्वारा) शिवजी के वचन सुनकर गुरुजी हर्षित होकर ‘ऐसा ही हो’ यह कहकर मुझे बहुत समझाकर और शिवजी के चरणों को हृदय में रखकर अपने घर गए ॥ १०९ (क) ॥
प्रेरित काल बिंधि गिरि जाइ भयउँ मैं ब्याल ।
पुनि प्रयास बिनु सो तनु तजेउँ गएँ कछु काल ॥ १०९ ख ॥
काल की प्रेरणा से मैं विन्ध्याचल में जाकर सर्प हुआ । फिर कुछ काल बीतने पर बिना ही परिश्रम (कष्ट) के मैंने वह शरीर त्याग दिया । १०९ (ख) ॥
जोइ तनु धरउँ तजउँ पुनि अनायास हरिजान ।
जिमि नूतन पट पहिरइ नर परिहरइ पुरान ॥ १०९ ग ॥
हे हरिवाहन! मैं जो भी शरीर धारण करता, उसे बिना ही परिश्रम वैसे ही सुखपूर्वक त्याग देता था, जैसे मनुष्य पुराना वस्त्र त्याग देता है और नया पहिन लेता है ॥ १०९ (ग) ॥
सिवँ राखी श्रुति नीति अरु मैं नहिं पावा क्लेस ।
एहि बिधि धरेउँ बिबिधि तनु ग्यान न गयउ खगेस ॥ १०९ घ ॥
शिवजी ने वेद की मर्यादा की रक्षा की और मैंने क्लेश भी नहीं पाया । इस प्रकार हे पक्षीराज! मैंने बहुत से शरीर धारण किए, पर मेरा ज्ञान नहीं गया ॥ १०९ (घ) ॥
चौपाई :
त्रिजग देव नर जोइ तनु धरउँ । तहँ तहँ राम भजन अनुसरऊँ ॥
एक सूल मोहि बिसर न काऊ । गुर कर कोमल सील सुभाऊ ॥ १ ॥
तिर्यक् योनि (पशु-पक्षी), देवता या मनुष्य का, जो भी शरीर धारण करता, वहाँ-वहाँ (उस-उस शरीर में) मैं श्री रामजी का भजन जारी रखता । (इस प्रकार मैं सुखी हो गया), परंतु एक शूल मुझे बना रहा । गुरुजी का कोमल, सुशील स्वभाव मुझे कभी नहीं भूलता (अर्थात् मैंने ऐसे कोमल स्वभाव दयालु गुरु का अपमान किया, यह दुःख मुझे सदा बना रहा) ॥ १ ॥
चरम देह द्विज कै मैं पाई । सुर दुर्लभ पुरान श्रुति गाई ॥
खेलउँ तहूँ बालकन्ह मीला । करउँ सकल रघुनायक लीला ॥ २ ॥
मैंने अंतिम शरीर ब्राह्मण का पाया, जिसे पुराण और वेद देवताओं को भी दुर्लभ बताते हैं । मैं वहाँ (ब्राह्मण शरीर में) भी बालकों में मिलकर खेलता तो श्री रघुनाथजी की ही सब लीलाएँ किया करता ॥ २ ॥
प्रौढ़ भएँ मोहि पिता पढ़ावा । समझउँ सुनउँ गुनउँ नहिं भावा ॥
मन ते सकल बासना भागी । केवल राम चरन लय लागी ॥ ३ ॥
सयाना होने पर पिताजी मुझे पढ़ाने लगे । मैं समझता, सुनता और विचारता, पर मुझे पढ़ना अच्छा नहीं लगता था । मेरे मन से सारी वासनाएँ भाग गईं । केवल श्री रामजी के चरणों में लव लग गई ॥ ३ ॥
कहु खगेस अस कवन अभागी । खरी सेव सुरधेनुहि त्यागी ॥
प्रेम मगन मोहि कछु न सोहाई । हारेउ पिता पढ़ाइ पढ़ाई ॥ ४ ॥
हे गरुड़जी! कहिए, ऐसा कौन अभागा होगा जो कामधेनु को छोड़कर गदही की सेवा करेगा? प्रेम में मग्न रहने के कारण मुझे कुछ भी नहीं सुहाता । पिताजी पढ़ा-पढ़ाकर हार गए ॥ ४ ॥
भय कालबस जब पितु माता । मैं बन गयउँ भजन जनत्राता ॥
जहँ जहँ बिपिन मुनीस्वर पावउँ । आश्रम जाइ जाइ सिरु नावउँ ॥ ५ ॥
जब पिता-माता कालवश हो गए (मर गए), तब मैं भक्तों की रक्षा करने वाले श्री रामजी का भजन करने के लिए वन में चला गया । वन में जहाँ-जहाँ मुनीश्वरों के आश्रम पाता, वहाँ-वहाँ जा-जाकर उन्हें सिर नवाता ॥ ५ ॥
बूझउँ तिन्हहि राम गुन गाहा । कहहिं सुनउँ हरषित खगनाहा ॥
सुनत फिरउँ हरि गुन अनुबादा । अब्याहत गति संभु प्रसादा ॥ ६ ॥
हे गरुड़जी ! उनसे मैं श्री रामजी के गुणों की कथाएँ पूछता । वे कहते और मैं हर्षित होकर सुनता । इस प्रकार मैं सदा-सर्वदा श्री हरि के गुणानुवाद सुनता फिरता । शिवजी की कृपा से मेरी सर्वत्र अबाधित गति थी (अर्थात् मैं जहाँ चाहता वहीं जा सकता था) ॥ ६ ॥
छूटी त्रिबिधि ईषना गाढ़ी । एक लालसा उर अति बाढ़ी ॥
राम चरन बारिज जब देखौं । तब निज जन्म सफल करि लेखौं ॥ ७ ॥
मेरी तीनों प्रकार की (पुत्र की, धन की और मान की) गहरी प्रबल वासनाएँ छूट गईं और हृदय में एक यही लालसा अत्यंत बढ़ गई कि जब श्री रामजी के चरणकमलों के दर्शन करूँ तब अपना जन्म सफल हुआ समझूँ ॥ ७ ॥
जेहि पूँछउँ सोइ मुनि अस कहई । ईस्वर सर्ब भूतमय अहई ॥
निर्गुन मत नहिं मोहि सोहाई । सगुन ब्रह्म रति उर अधिकाई ॥ ८ ॥
जिनसे मैं पूछता, वे ही मुनि ऐसा कहते कि ईश्वर सर्वभूतमय है । यह निर्गुण मत मुझे नहीं सुहाता था । हृदय में सगुण ब्रह्म पर प्रीति बढ़ रही थी ॥ ८ ॥