चौपाई :
एक बार गुर लीन्ह बोलाई । मोहि नीति बहु भाँति सिखाई ॥
सिव सेवा कर फल सुत सोई । अबिरल भगति राम पद होई ॥ १ ॥
एक बार गुरुजी ने मुझे बुला लिया और बहुत प्रकार से (परमार्थ) नीति की शिक्षा दी कि हे पुत्र! शिवजी की सेवा का फल यही है कि श्री रामजी के चरणों में प्रगाढ़ भक्ति हो ॥ १ ॥
रामहि भजहिं तात सिव धाता । नर पावँर कै केतिक बाता ॥
जासु चरन अज सिव अनुरागी । तासु द्रोहँ सुख चहसि अभागी ॥ २ ॥
हे तात! शिवजी और ब्रह्माजी भी श्री रामजी को भजते हैं (फिर) नीच मनुष्य की तो बात ही कितनी है? ब्रह्माजी और शिवजी जिनके चरणों के प्रेमी हैं, अरे अभागे! उनसे द्रोह करके तू सुख चाहता है? ॥ २ ॥
हर कहुँ हरि सेवक गुर कहेऊ । सुनि खगनाथ हृदय मम दहेऊ ॥
अधम जाति मैं बिद्या पाएँ । भयउँ जथा अहि दूध पिआएँ ॥ ३ ॥
गुरुजी ने शिवजी को हरि का सेवक कहा । यह सुनकर हे पक्षीराज! मेरा हृदय जल उठा । नीच जाति का मैं विद्या पाकर ऐसा हो गया जैसे दूध पिलाने से साँप ॥ ३ ॥
मानी कुटिल कुभाग्य कुजाती । गुर कर द्रोह करउँ दिनु राती ॥
अति दयाल गुर स्वल्प न क्रोधा । पुनि पुनि मोहि सिखाव सुबोधा ॥ ४ ॥
अभिमानी, कुटिल, दुर्भाग्य और कुजाति मैं दिन-रात गुरुजी से द्रोह करता । गुरुजी अत्यंत दयालु थे, उनको थोड़ा सा भी क्रोध नहीं आता । (मेरे द्रोह करने पर भी) वे बार-बार मुझे उत्तम ज्ञान की ही शिक्षा देते थे ॥ ४ ॥
जेहि ते नीच बड़ाई पावा । सो प्रथमहिं हति ताहि नसावा ॥
धूम अनल संभव सुनु भाई । तेहि बुझाव घन पदवी पाई ॥ ५ ॥
नीच मनुष्य जिससे बड़ाई पाता है, वह सबसे पहले उसी को मारकर उसी का नाश करता है । हे भाई! सुनिए, आग से उत्पन्न हुआ धुआँ मेघ की पदवी पाकर उसी अग्नि को बुझा देता है ॥ ५ ॥
रज मग परी निरादर रहई । सब कर पद प्रहार नित सहई ॥
मरुत उड़ाव प्रथम तेहि भरई । पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई ॥ ६ ॥
धूल रास्ते में निरादर से पड़ी रहती है और सदा सब (राह चलने वालों) की लातों की मार सहती है । पर जब पवन उसे उड़ाता (ऊँचा उठाता) है, तो सबसे पहले वह उसी (पवन) को भर देती है और फिर राजाओं के नेत्रों और किरीटों (मुकुटों) पर पड़ती है ॥ ६ ॥
सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा । बुध नहिं करहिं अधम कर संगा ॥
कबि कोबिद गावहिं असि नीति । खल सन कलह न भल नहिं प्रीति ॥ ७ ॥
हे पक्षीराज गरुड़जी! सुनिए, ऐसी बात समझकर बुद्धिमान, लोग अधम (नीच) का संग नहीं करते । कवि और पंडित ऐसी नीति कहते हैं कि दुष्ट से न कलह ही अच्छा है, न प्रेम ही ॥ ७ ॥
उदासीन नित रहिअ गोसाईं । खल परिहरिअ स्वान की नाईं ॥
मैं खल हृदयँ कपट कुटिलाई । गुर हित कहइ न मोहि सोहाई ॥ ८ ॥
हे गोसाईं! उससे तो सदा उदासीन ही रहना चाहिए । दुष्ट को कुत्ते की तरह दूर से ही त्याग देना चाहिए । मैं दुष्ट था, हृदय में कपट और कुटिलता भरी थी, (इसलिए यद्यपि) गुरुजी हित की बात कहते थे, पर मुझे वह सुहाती न थी ॥ ८ ॥
दोहा :
एक बार हर मंदिर जपत रहेउँ सिव नाम ।
गुर आयउ अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह प्रनाम ॥ १०६ क ॥
एक दिन मैं शिवजी के मंदिर में शिवनाम जप रहा था । उसी समय गुरुजी वहाँ आए, पर अभिमान के मारे मैंने उठकर उनको प्रणाम नहीं किया ॥ १०६ (क) ॥
सो दयाल नहिं कहेउ कछु उर न रोष लवलेस ।
अति अघ गुर अपमानता सहि नहिं सके महेस ॥ १०६ ख ॥
गुरुजी दयालु थे, (मेरा दोष देखकर भी) उन्होंने कुछ नहीं कहा, उनके हृदय में लेशमात्र भी क्रोध नहीं हुआ । पर गुरु का अपमान बहुत बड़ा पाप है, अतः महादेवजी उसे नहीं सह सके ॥ १०६ (ख) ॥
चौपाई :
मंदिर माझ भई नभबानी । रे हतभाग्य अग्य अभिमानी ॥
जद्यपि तव गुर के नहिं क्रोधा । अति कृपाल चित सम्यक बोधा ॥ १
मंदिर में आकाशवाणी हुई कि अरे हतभाग्य! मूर्ख! अभिमानी! यद्यपि तेरे गुरु को क्रोध नहीं है, वे अत्यंत कृपालु चित्त के हैं और उन्हें (पूर्ण तथा) यथार्थ ज्ञान है, ॥ १ ॥
तदपि साप सठ दैहउँ तोही । नीति बिरोध सोहाइ न मोही ॥
जौं नहिं दंड करौं खल तोरा । भ्रष्ट होइ श्रुतिमारग मोरा ॥ २ ॥
तो भी हे मूर्ख! तुझको मैं शाप दूँगा, (क्योंकि) नीति का विरोध मुझे अच्छा नहीं लगता । अरे दुष्ट! यदि मैं तुझे दण्ड न दूँ, तो मेरा वेदमार्ग ही भ्रष्ट हो जाए ॥ २ ॥
जे सठ गुर सन इरिषा करहीं । रौरव नरक कोटि जुग परहीं ॥
त्रिजग जोनि पुनि धरहिं सरीरा । अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा ॥ ३ ॥
जो मूर्ख गुरु से ईर्षा करते हैं, वे करोड़ों युगों तक रौरव नरक में पड़े रहते हैं । फिर (वहाँ से निकलकर) वे तिर्यक् (पशु, पक्षी आदि) योनियों में शरीर धारण करते हैं और दस हजार जन्मों तक दुःख पाते रहते हैं ॥ ३ ॥
बैठि रहेसि अजगर इव पापी । सर्प होहि खल मल मति ब्यापी ॥
महा बिटप कोटर महुँ जाई । रहु अधमाधम अधगति पाई ॥ ४ ॥
अरे पापी! तू गुरु के सामने अजगर की भाँति बैठा रहा । रे दुष्ट! तेरी बुद्धि पाप से ढँक गई है, (अतः) तू सर्प हो जा और अरे अधम से भी अधम! इस अधोगति (सर्प की नीची योनि) को पाकर किसी बड़े भारी पेड़ के खोखले में जाकर रह ॥ ४ ॥
दोहा :
हाहाकार कीन्ह गुर दारुन सुनि सिव साप ।
कंपित मोहि बिलोकि अति उर उपजा परिताप ॥ १०७ क ॥
शिवजी का भयानक शाप सुनकर गुरुजी ने हाहाकार किया । मुझे काँपता हुआ देखकर उनके हृदय में बड़ा संताप उत्पन्न हुआ ॥ १०७ (क) ॥
करि दंडवत सप्रेम द्विज सिव सन्मुख कर जोरि ।
बिनय करत गदगद स्वर समुझि घोर गति मोरि ॥ १०७ ख ॥
प्रेम सहित दण्डवत् करके वे ब्राह्मण श्री शिवजी के सामने हाथ जोड़कर मेरी भयंकर गति (दण्ड) का विचार कर गदगद वाणी से विनती करने लगे- ॥ १०७ (ख) ॥