दोहा :
सेतुबंध भइ भीर अति कपि नभ पंथ उड़ाहिं ।
अपर जलचरन्हि ऊपर चढ़ि चढ़ि पारहि जाहिं ॥ ४ ॥
सेतुबन्ध पर बड़ी भीड़ हो गई, इससे कुछ वानर आकाश मार्ग से उड़ने लगे और दूसरे (कितने ही) जलचर जीवों पर चढ़-चढ़कर पार जा रहे हैं ॥ ४ ॥
चौपाई :
अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई । बिहँसि चले कृपाल रघुराई ॥
सेन सहित उतरे रघुबीरा । कहि न जाइ कपि जूथप भीरा ॥ १ ॥
कृपालु रघुनाथजी (तथा लक्ष्मणजी) दोनों भाई ऐसा कौतुक देखकर हँसते हुए चले । श्री रघुवीर सेना सहित समुद्र के पार हो गए । वानरों और उनके सेनापतियों की भीड़ कही नहीं जा सकती ॥ १ ॥
सिंधु पार प्रभु डेरा कीन्हा । सकल कपिन्ह कहुँ आयसु दीन्हा ॥
खाहु जाइ फल मूल सुहाए । सुनत भालू कपि जहँ तहँ धाए ॥ २ ॥
प्रभु ने समुद्र के पार डेरा डाला और सब वानरों को आज्ञा दी कि तुम जाकर सुंदर फल-मूल खाओ । यह सुनते ही रीछ-वानर जहाँ-तहाँ दौड़ पड़े ॥ २ ॥
सब तरु फरे राम हित लागी । रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी ॥
खाहिं मधुर फल बिटप हलावहिं । लंका सन्मुख सिखर चलावहिं ॥ ३ ॥
श्री रामजी के हित (सेवा) के लिए सब वृक्ष ऋतु-कुऋतु- समय की गति को छोड़कर फल उठे । वानर-भालू मीठे फल खा रहे हैं, वृक्षों को हिला रहे हैं और पर्वतों के शिखरों को लंका की ओर फेंक रहे हैं ॥ ३ ॥
जहँ कहुँ फिरत निसाचर पावहिं । घेरि सकल बहु नाच नचावहिं ॥
दसनन्हि काटि नासिका काना । कहि प्रभु सुजसु देहिं तब जाना ॥ ४ ॥
घूमते-घूमते जहाँ कहीं किसी राक्षस को पा जाते हैं तो सब उसे घेरकर खूब नाच नचाते हैं और दाँतों से उसके नाक-कान काटकर, प्रभु का सुयश कहकर (अथवा कहलाकर) तब उसे जाने देते हैं ॥ ४ ॥
जिन्ह कर नासा कान निपाता । तिन्ह रावनहि कही सब बाता ॥
सुनत श्रवन बारिधि बंधाना । दस मुख बोलि उठा अकुलाना ॥ ५ ॥
जिन राक्षसों के नाक और कान काट डाले गए, उन्होंने रावण से सब समाचार कहा । समुद्र (पर सेतु) का बाँधा जाना कानों से सुनते ही रावण घबड़ाकर दसों मुखों से बोल उठा- ॥ ५ ॥