चौपाई :
तेही निसि सीता पहिं जाई । त्रिजटा कहि सब कथा सुनाई ॥
सिर भुज बाढ़ि सुनत रिपु केरी । सीता उर भइ त्रास घनेरी ॥ १ ॥
उसी रात त्रिजटा ने सीताजी के पास जाकर उन्हें सब कथा कह सुनाई । शत्रु के सिर और भुजाओं की बढ़ती का संवाद सुनकर सीताजी के हृदय में बड़ा भय हुआ ॥ १ ॥
मुख मलीन उपजी मन चिंता । त्रिजटा सन बोली तब सीता ॥
होइहि कहा कहसि किन माता । केहि बिधि मरिहि बिस्व दुखदाता ॥ २ ॥
(उनका) मुख उदास हो गया, मन में चिंता उत्पन्न हो गई । तब सीताजी त्रिजटा से बोलीं - हे माता! बताती क्यों नहीं? क्या होगा? संपूर्ण विश्व को दुःख देने वाला यह किस प्रकार मरेगा? ॥ २ ॥
रघुपति सर सिर कटेहुँ न मरई । बिधि बिपरीत चरित सब करई ॥
मोर अभाग्य जिआवत ओही । जेहिं हौं हरि पद कमल बिछोही ॥ ३ ॥
श्री रघुनाथजी के बाणों से सिर कटने पर भी नहीं मरता । विधाता सारे चरित्र विपरीत (उलटे) ही कर रहा है । (सच बात तो यह है कि) मेरा दुर्भाग्य ही उसे जिला रहा है, जिसने मुझे भगवान् के चरणकमलों से अलग कर दिया है ॥ ३ ॥
जेहिं कृत कपट कनक मृग झूठा । अजहुँ सो दैव मोहि पर रूठा ॥
जेहिं बिधि मोहि दुख दुसह सहाए । लछिमन कहुँ कटु बचन कहाए ॥ ४ ॥
जिसने कपट का झूठा स्वर्ण मृग बनाया था, वही दैव अब भी मुझ पर रूठा हुआ है, जिस विधाता ने मुझसे दुःसह दुःख सहन कराए और लक्ष्मण को कड़ुवे वचन कहलाए, ॥ ४ ॥
रघुपति बिरह सबिष सर भारी । तकि तकि मार बार बहु मारी ॥
ऐसेहुँ दुख जो राख मम प्राना । सोइ बिधि ताहि जिआव न आना ॥ ५ ॥
जो श्री रघुनाथजी के विरह रूपी बड़े विषैले बाणों से तक-तककर मुझे बहुत बार मारकर, अब भी मार रहा है और ऐसे दुःख में भी जो मेरे प्राणों को रख रहा है, वही विधाता उस (रावण) को जिला रहा है, दूसरा कोई नहीं ॥ ५ ॥
बहु बिधि कर बिलाप जानकी । करि करि सुरति कृपानिधान की ॥
कह त्रिजटा सुनु राजकुमारी । उर सर लागत मरइ सुरारी ॥ ६ ॥
कृपानिधान श्री रामजी की याद कर-करके जानकीजी बहुत प्रकार से विलाप कर रही हैं । त्रिजटा ने कहा - हे राजकुमारी! सुनो, देवताओं का शत्रु रावण हृदय में बाण लगते ही मर जाएगा ॥ ६ ॥
प्रभु ताते उर हतइ न तेही । एहि के हृदयँ बसति बैदेही ॥ ७ ॥
परन्तु प्रभु उसके हृदय में बाण इसलिए नहीं मारते कि इसके हृदय में जानकीजी (आप) बसती हैं ॥ ७ ॥
छंद :
एहि के हृदयँ बस जानकी जानकी उर मम बास है ।
मम उदर भुअन अनेक लागत बान सब कर नास है ॥
सुनि बचन हरष बिषाद मन अति देखि पुनि त्रिजटाँ कहा ।
अब मरिहि रिपु एहि बिधि सुनहि सुंदरि तजहि संसय महा ॥
वे यही सोचकर रह जाते हैं कि) इसके हृदय में जानकी का निवास है, जानकी के हृदय में मेरा निवास है और मेरे उदर में अनेकों भुवन हैं । अतः रावण के हृदय में बाण लगते ही सब भुवनों का नाश हो जाएगा । यह वचन सुनकर सीताजी के मन में अत्यंत हर्ष और विषाद हुआ देखकर त्रिजटा ने फिर कहा - हे सुंदरी! महान् संदेह का त्याग कर दो, अब सुनो, शत्रु इस प्रकार मरेगा-
दोहा :
काटत सिर होइहि बिकल छुटि जाइहि तव ध्यान ।
तब रावनहि हृदय महुँ मरिहहिं रामु सुजान ॥ ९९ ॥
सिरों के बार-बार काटे जाने से जब वह व्याकुल हो जाएगा और उसके हृदय से तुम्हारा ध्यान छूट जाएगा, तब सुजान (अंतर्यामी) श्री रामजी रावण के हृदय में बाण मारेंगे ॥ ९९ ॥
चौपाई :
अस कहि बहुत भाँति समुझाई । पुनि त्रिजटा निज भवन सिधाई ॥
राम सुभाउ सुमिरि बैदेही । उपजी बिरह बिथा अति तेही ॥ १ ॥
ऐसा कहकर और सीताजी को बहुत प्रकार से समझाकर फिर त्रिजटा अपने घर चली गई । श्री रामचंद्रजी के स्वभाव का स्मरण करके जानकीजी को अत्यंत विरह व्यथा उत्पन्न हुई ॥ १ ॥
निसिहि ससिहि निंदति बहु भाँति । जुग सम भई सिराति न राती ॥
करति बिलाप मनहिं मन भारी । राम बिरहँ जानकी दुखारी ॥ २ ॥
वे रात्रि की और चंद्रमा की बहुत प्रकार से निंदा कर रही हैं (और कह रही हैं - ) रात युग के समान बड़ी हो गई, वह बीतती ही नहीं । जानकीजी श्री रामजी के विरह में दुःखी होकर मन ही मन भारी विलाप कर रही हैं ॥ २ ॥
जब अति भयउ बिरह उर दाहू । फरकेउ बाम नयन अरु बाहू ॥
सगुन बिचारि धरी मन धीरा । अब मिलिहहिं कृपाल रघुबीरा ॥ ३ ॥
जब विरह के मारे हृदय में दारुण दाह हो गया, तब उनका बायाँ नेत्र और बाहु फड़क उठे । शकुन समझकर उन्होंने मन में धैर्य धारण किया कि अब कृपालु श्री रघुवीर अवश्य मिलेंगे ॥ ३ ॥
इहाँ अर्धनिसि रावनु जागा । निज सारथि सन खीझन लागा ।
सठ रनभूमि छड़ाइसि मोही । धिग धिग अधम मंदमति तोही ॥ ४ ॥
यहाँ आधी रात को रावण (मूर्च्छा से) जागा और अपने सारथी पर रुष्ट होकर कहने लगा- अरे मूर्ख! तूने मुझे रणभूमि से अलग कर दिया । अरे अधम! अरे मंदबुद्धि! तुझे धिक्कार है, धिक्कार है! ॥ ४ ॥
तेहिं पद गहि बहु बिधि समुझावा । भोरु भएँ रथ चढ़ि पुनि धावा ॥
सुनि आगवनु दसानन केरा । कपि दल खरभर भयउ घनेरा ॥ ५ ॥
सारथि ने चरण पकड़कर रावण को बहुत प्रकार से समझाया । सबेरा होते ही वह रथ पर चढ़कर फिर दौड़ा । रावण का आना सुनकर वानरों की सेना में बड़ी खलबली मच गई ॥ ५ ॥
जहँ तहँ भूधर बिटप उपारी । धाए कटकटाइ भट भारी ॥ ६ ॥
वे भारी योद्धा जहाँ-तहाँ से पर्वत और वृक्ष उखाड़कर (क्रोध से) दाँत कटकटाकर दौड़े ॥ ६ ॥