दोहा :

पुनि दसकंठ क्रुद्ध होइ छाँड़ी सक्ति प्रचंड ।
चली बिभीषन सन्मुख मनहुँ काल कर दंड ॥ ९३ ॥

फिर रावण ने क्रोधित होकर प्रचण्ड शक्ति छोड़ी । वह विभीषण के सामने ऐसी चली जैसे काल (यमराज) का दण्ड हो ॥ ९३ ॥

चौपाई :

आवत देखि सक्ति अति घोरा । प्रनतारति भंजन पन मोरा ॥
तुरत बिभीषन पाछें मेला । सन्मुख राम सहेउ सोइ सेला ॥ १ ॥

अत्यंत भयानक शक्ति को आती देख और यह विचार कर कि मेरा प्रण शरणागत के दुःख का नाश करना है, श्री रामजी ने तुरंत ही विभीषण को पीछे कर लिया और सामने होकर वह शक्ति स्वयं सह ली ॥ १ ॥

लागि सक्ति मुरुछा कछु भई । प्रभु कृत खेल सुरन्ह बिकलई ॥
देखि बिभीषन प्रभु श्रम पायो । गहि कर गदा क्रुद्ध होइ धायो ॥ २ ॥

शक्ति लगने से उन्हें कुछ मूर्छा हो गई । प्रभु ने तो यह लीला की, पर देवताओं को व्याकुलता हुई । प्रभु को श्रम (शारीरिक कष्ट) प्राप्त हुआ देखकर विभीषण क्रोधित हो हाथ में गदा लेकर दौड़े ॥ २ ॥

रे कुभाग्य सठ मंद कुबुद्धे । तैं सुर नर मुनि नाग बिरुद्धे ॥
सादर सिव कहुँ सीस चढ़ाए । एक एक के कोटिन्ह पाए ॥ ३ ॥

(और बोले - ) अरे अभागे! मूर्ख, नीच दुर्बुद्धि! तूने देवता, मनुष्य, मुनि, नाग सभी से विरोध किया । तूने आदर सहित शिवजी को सिर चढ़ाए । इसी से एक-एक के बदले में करोड़ों पाए ॥ ३ ॥

तेहि कारन खल अब लगि बाँच्यो । अब तव कालु सीस पर नाच्यो ॥
राम बिमुख सठ चहसि संपदा । अस कहि हनेसि माझ उर गदा ॥ ४ ॥

उसी कारण से अरे दुष्ट! तू अब तक बचा है, (किन्तु) अब काल तेरे सिर पर नाच रहा है । अरे मूर्ख! तू राम विमुख होकर सम्पत्ति (सुख) चाहता है? ऐसा कहकर विभीषण ने रावण की छाती के बीचों-बीच गदा मारी ॥ ४ ॥

छंद :

उर माझ गदा प्रहार घोर कठोर लागत महि पर्यो ।
दस बदन सोनित स्रवत पुनि संभारि धायो रिस भर्यो ॥
द्वौ भिरे अतिबल मल्लजुद्ध बिरुद्ध एकु एकहि हनै ।
रघुबीर बल दर्पित बिभीषनु घालि नहिं ता कहुँ गनै ॥

बीच छाती में कठोर गदा की घोर और कठिन चोट लगते ही वह पृथ्वी पर गिर पड़ा । उसके दसों मुखों से रुधिर बहने लगा, वह अपने को फिर संभालकर क्रोध में भरा हुआ दौड़ा । दोनों अत्यंत बलवान् योद्धा भिड़ गए और मल्लयुद्ध में एक-दूसरे के विरुद्ध होकर मारने लगे । श्री रघुवीर के बल से गर्वित विभीषण उसको (रावण जैसे जगद्विजयी योद्धा को) पासंग के बराबर भी नहीं समझते ।

दोहा :

उमा बिभीषनु रावनहि सन्मुख चितव कि काउ ।
सो अब भिरत काल ज्यों श्री रघुबीर प्रभाउ ॥ ९४ ॥

(शिवजी कहते हैं - ) हे उमा! विभीषण क्या कभी रावण के सामने आँख उठाकर भी देख सकता था? परन्तु अब वही काल के समान उससे भिड़ रहा है । यह श्री रघुवीर का ही प्रभाव है ॥ ९४ ॥