दोहा :
लछिमन अति लाघवँ सो नाक कान बिनु कीन्हि ।
ताके कर रावन कहँ मनौ चुनौती दीन्हि ॥ १७ ॥
लक्ष्मणजी ने बड़ी फुर्ती से उसको बिना नाक-कान की कर दिया । मानो उसके हाथ रावण को चुनौती दी हो! ॥ १७ ॥
चौपाई :
नाक कान बिनु भइ बिकरारा । जनु स्रव सैल गेरु कै धारा ॥
खर दूषन पहिं गइ बिलपाता । धिग धिग तव पौरुष बल भ्राता ॥ १ ॥
बिना नाक-कान के वह विकराल हो गई । (उसके शरीर से रक्त इस प्रकार बहने लगा) मानो (काले) पर्वत से गेरू की धारा बह रही हो । वह विलाप करती हुई खर-दूषण के पास गई (और बोली-) हे भाई! तुम्हारे पौरुष (वीरता) को धिक्कार है, तुम्हारे बल को धिक्कार है ॥ १ ॥
तेहिं पूछा सब कहेसि बुझाई । जातुधान सुनि सेन बनाई ॥
धाए निसिचर निकर बरूथा । जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा ॥ २ ॥
उन्होंने पूछा, तब शूर्पणखा ने सब समझाकर कहा । सब सुनकर राक्षसों ने सेना तैयार की । राक्षस समूह झुंड के झुंड दौड़े । मानो पंखधारी काजल के पर्वतों का झुंड हो ॥ २ ॥
नाना बाहन नानाकारा । नानायुध धर घोर अपारा ॥
सूपनखा आगें करि लीनी । असुभ रूप श्रुति नासा हीनी ॥ ३ ॥
वे अनेकों प्रकार की सवारियों पर चढ़े हुए तथा अनेकों आकार (सूरतों) के हैं । वे अपार हैं और अनेकों प्रकार के असंख्य भयानक हथियार धारण किए हुए हैं । उन्होंने नाक-कान कटी हुई अमंगलरूपिणी शूर्पणखा को आगे कर लिया ॥ ३ ॥
असगुन अमित होहिं भयकारी । गनहिं न मृत्यु बिबस सब झारी ॥
गर्जहिं तर्जहिं गगन उड़ाहीं । देखि कटकु भट अति हरषाहीं ॥ ४ ॥
अनगिनत भयंकर अशकुन हो रहे हैं, परंतु मृत्यु के वश होने के कारण वे सब के सब उनको कुछ गिनते ही नहीं । गरजते हैं, ललकारते हैं और आकाश में उड़ते हैं । सेना देखकर योद्धा लोग बहुत ही हर्षित होते हैं ॥ ४ ॥
कोउ कह जिअत धरहु द्वौ भाई । धरि मारहु तिय लेहु छड़ाई ॥
धूरि पूरि नभ मंडल रहा । राम बोलाइ अनुज सन कहा ॥ ५ ॥
कोई कहता है दोनों भाइयों को जीता ही पकड़ लो, पकड़कर मार डालो और स्त्री को छीन लो । आकाशमण्डल धूल से भर गया । तब श्री रामजी ने लक्ष्मणजी को बुलाकर उनसे कहा ॥ ५ ॥
लै जानकिहि जाहु गिरि कंदर । आवा निसिचर कटकु भयंकर ॥
रहेहु सजग सुनि प्रभु कै बानी । चले सहित श्री सर धनु पानी ॥ ६ ॥
राक्षसों की भयानक सेना आ गई है । जानकीजी को लेकर तुम पर्वत की कंदरा में चले जाओ । सावधान रहना । प्रभु श्री रामचंद्रजी के वचन सुनकर लक्ष्मणजी हाथ में धनुष-बाण लिए श्री सीताजी सहित चले ॥ ६ ॥
देखि राम रिपुदल चलि आवा ।
बिहसि कठिन कोदंड चढ़ावा ॥ ७ ॥
शत्रुओं की सेना (समीप) चली आई है, यह देखकर श्री रामजी ने हँसकर कठिन धनुष को चढ़ाया ॥ ७ ॥
छंद :
कोदंड कठिन चढ़ाइ सिर जट जूट बाँधत सोह क्यों ।
मरकत सयल पर लरत दामिनि कोटि सों जुग भुजग ज्यों ॥
कटि कसि निषंग बिसाल भुज गहि चाप बिसिख सुधारि कै ।
चितवत मनहुँ मृगराज प्रभु गजराज घटा निहारि कै ॥
कठिन धनुष चढ़ाकर सिर पर जटा का जू़ड़ा बाँधते हुए प्रभु कैसे शोभित हो रहे हैं, जैसे मरकतमणि (पन्ने) के पर्वत पर करोड़ों बिजलियों से दो साँप लड़ रहे हों । कमर में तरकस कसकर, विशाल भुजाओं में धनुष लेकर और बाण सुधारकर प्रभु श्री रामचंद्रजी राक्षसों की ओर देख रहे हैं । मानों मतवाले हाथियों के समूह को (आता) देखकर सिंह (उनकी ओर) ताक रहा हो ।
सोरठा :
आइ गए बगमेल धरहु धरहु धावत सुभट ।
जथा बिलोकि अकेल बाल रबिहि घेरत दनुज ॥ १८ ॥
‘पकड़ो-पकड़ो’ पुकारते हुए राक्षस योद्धा बाग छोड़कर (बड़ी तेजी से) दौड़े हुए आए (और उन्होंने श्री रामजी को चारों ओर से घेर लिया), जैसे बालसूर्य (उदयकालीन सूर्य) को अकेला देखकर मन्देह नामक दैत्य घेर लेते हैं ॥ १८ ॥
चौपाई :
प्रभु बिलोकि सर सकहिं न डारी । थकित भई रजनीचर धारी ॥
सचिव बोलि बोले खर दूषन । यह कोउ नृपबालक नर भूषन ॥ १ ॥
(सौंदर्य-माधुर्यनिधि) प्रभु श्री रामजी को देखकर राक्षसों की सेना थकित रह गई । वे उन पर बाण नहीं छोड़ सके । मंत्री को बुलाकर खर-दूषण ने कहा - यह राजकुमार कोई मनुष्यों का भूषण है ॥ १ ॥
नाग असुर सुर नर मुनि जेते । देखे जिते हते हम केते ॥
हम भरि जन्म सुनहु सब भाई । देखी नहिं असि सुंदरताई ॥ २ ॥
जितने भी नाग, असुर, देवता, मनुष्य और मुनि हैं, उनमें से हमने न जाने कितने ही देखे, जीते और मार डाले हैं । पर हे सब भाइयों! सुनो, हमने जन्मभर में ऐसी सुंदरता कहीं नहीं देखी ॥ २ ॥
जद्यपि भगिनी कीन्हि कुरूपा । बध लायक नहिं पुरुष अनूपा ॥
देहु तुरत निज नारि दुराई । जीअत भवन जाहु द्वौ भाई ॥ ३ ॥
यद्यपि इन्होंने हमारी बहिन को कुरूप कर दिया तथापि ये अनुपम पुरुष वध करने योग्य नहीं हैं । ‘छिपाई हुई अपनी स्त्री हमें तुरंत दे दो और दोनों भाई जीते जी घर लौट जाओ’ ॥ ३ ॥
मोर कहा तुम्ह ताहि सुनावहु । तासु बचन सुनि आतुर आवहु ॥
दूतन्ह कहा राम सन जाई । सुनत राम बोले मुसुकाई ॥ ४ ॥
मेरा यह कथन तुम लोग उसे सुनाओ और उसका वचन (उत्तर) सुनकर शीघ्र आओ । दूतों ने जाकर यह संदेश श्री रामचंद्रजी से कहा । उसे सुनते ही श्री रामचंद्रजी मुस्कुराकर बोले - ॥ ४ ॥
हम छत्री मृगया बन करहीं । तुम्ह से खल मृग खोजत फिरहीं ॥
रिपु बलवंत देखि नहिं डरहीं । एक बार कालहु सन लरहीं ॥ ५ ॥
हम क्षत्रिय हैं, वन में शिकार करते हैं और तुम्हारे सरीखे दुष्ट पशुओं को तो ढ़ूँढते ही फिरते हैं । हम बलवान् शत्रु देखकर नहीं डरते । (लड़ने को आवे तो) एक बार तो हम काल से भी लड़ सकते हैं ॥ ५ ॥
जद्यपि मनुज दनुज कुल घालक । मुनि पालक खल सालक बालक ॥
जौं न होइ बल घर फिरि जाहू । समर बिमुख मैं हतउँ न काहू ॥ ६ ॥
यद्यपि हम मनुष्य हैं, परन्तु दैत्यकुल का नाश करने वाले और मुनियों की रक्षा करने वाले हैं, हम बालक हैं, परन्तु दुष्टों को दण्ड देने वाले । यदि बल न हो तो घर लौट जाओ । संग्राम में पीठ दिखाने वाले किसी को मैं नहीं मारता ॥ ६ ॥
रन चढ़ि करिअ कपट चतुराई । रिपु पर कृपा परम कदराई ॥
दूतन्ह जाइ तुरत सब कहेऊ । सुनि खर दूषन उर अति दहेऊ ॥ ७ ॥
रण में चढ़ आकर कपट-चतुराई करना और शत्रु पर कृपा करना (दया दिखाना) तो बड़ी भारी कायरता है । दूतों ने लौटकर तुरंत सब बातें कहीं, जिन्हें सुनकर खर-दूषण का हृदय अत्यंत जल उठा ॥ ७ ॥
छंद :
उर दहेउ कहेउ कि धरहु धाए बिकट भट रजनीचरा ।
सर चाप तोमर सक्ति सूल कृपान परिघ परसु धरा ॥
प्रभु कीन्हि धनुष टकोर प्रथम कठोर घोर भयावहा ।
भए बधिर ब्याकुल जातुधान न ग्यान तेहि अवसर रहा ॥
(खर-दूषण का) हृदय जल उठा । तब उन्होंने कहा - पकड़ लो (कैद कर लो) । (यह सुनकर) भयानक राक्षस योद्धा बाण, धनुष, तोमर, शक्ति (साँग), शूल (बरछी), कृपाण (कटार), परिघ और फरसा धारण किए हुए दौड़ पड़े । प्रभु श्री रामजी ने पहले धनुष का बड़ा कठोर, घोर और भयानक टंकार किया, जिसे सुनकर राक्षस बहरे और व्याकुल हो गए । उस समय उन्हें कुछ भी होश न रहा ।
दोहा :
सावधान होइ धाए जानि सबल आराति ।
लागे बरषन राम पर अस्त्र सस्त्र बहुभाँति ॥ १९ क ॥
फिर वे शत्रु को बलवान् जानकर सावधान होकर दौड़े और श्री रामचन्द्रजी के ऊपर बहुत प्रकार के अस्त्र-शस्त्र बरसाने लगे ॥ १९ (क) ॥
तिन्ह के आयुध तिल सम करि काटे रघुबीर ।
तानि सरासन श्रवन लगि पुनि छाँड़े निज तीर ॥ १९ ख ॥
श्री रघुवीरजी ने उनके हथियारों को तिल के समान (टुकड़े-टुकड़े) करके काट डाला । फिर धनुष को कान तक तानकर अपने तीर छोड़े ॥ १९ (ख) ॥
छन्द :
तब चले बान कराल । फुंकरत जनु बहु ब्याल ॥
कोपेउ समर श्रीराम । चले बिसिख निसित निकाम ॥ १ ॥
तब भयानक बाण ऐसे चले, मानो फुफकारते हुए बहुत से सर्प जा रहे हैं । श्री रामचन्द्रजी संग्राम में क्रुद्ध हुए और अत्यन्त तीक्ष्ण बाण चले ॥ १ ॥
अवलोकि खरतर तीर । मुरि चले निसिचर बीर ॥
भए क्रुद्ध तीनिउ भाइ । जो भागि रन ते जाइ ॥ २ ॥
अत्यन्त तीक्ष्ण बाणों को देखकर राक्षस वीर पीठ दिखाकर भाग चले । तब खर-दूषण और त्रिशिरा तीनों भाई क्रुद्ध होकर बोले - जो रण से भागकर जाएगा, ॥ २ ॥
तेहि बधब हम निज पानि । फिरे मरन मन महुँ ठानि ॥
आयुध अनेक प्रकार । सनमुख ते करहिं प्रहार ॥ ३ ॥
उसका हम अपने हाथों वध करेंगे । तब मन में मरना ठानकर भागते हुए राक्षस लौट पड़े और सामने होकर वे अनेकों प्रकार के हथियारों से श्री रामजी पर प्रहार करने लगे ॥ ३ ॥
रिपु परम कोपे जानि । प्रभु धनुष सर संधानि ॥
छाँड़े बिपुल नाराच । लगे कटन बिकट पिसाच ॥ ४ ॥
शत्रु को अत्यन्त कुपित जानकर प्रभु ने धनुष पर बाण चढ़ाकर बहुत से बाण छोड़े, जिनसे भयानक राक्षस कटने लगे ॥ ४ ॥
उर सीस भुज कर चरन । जहँ तहँ लगे महि परन ॥
चिक्करत लागत बान । धर परत कुधर समान ॥ ५ ॥
उनकी छाती, सिर, भुजा, हाथ और पैर जहाँ-तहाँ पृथ्वी पर गिरने लगे । बाण लगते ही वे हाथी की तरह चिंघाड़ते हैं । उनके पहाड़ के समान धड़ कट-कटकर गिर रहे हैं ॥ ५ ॥
भट कटत तन सत खंड । पुनि उठत करि पाषंड ॥
नभ उड़त बहु भुज मुंड । बिनु मौलि धावत रुंड ॥ ६ ॥
योद्धाओं के शरीर कटकर सैकड़ों टुकड़े हो जाते हैं । वे फिर माया करके उठ खड़े होते हैं । आकाश में बहुत सी भुजाएँ और सिर उड़ रहे हैं तथा बिना सिर के धड़ दौड़ रहे हैं ॥ ६ ॥
खग कंक काक सृगाल । कटकटहिं कठिन कराल ॥ ७ ॥
चील (या क्रौंच), कौए आदि पक्षी और सियार कठोर और भयंकर कट-कट शब्द कर रहे हैं ॥ ७ ॥
छन्द :
कटकटहिं जंबुक भूत प्रेत पिसाच खर्पर संचहीं ।
बेताल बीर कपाल ताल बजाइ जोगिनि नंचहीं ॥
रघुबीर बान प्रचंड खंडहिं भटन्ह के उर भुज सिरा ।
जहँ तहँ परहिं उठि लरहिं धर धरु धरु करहिं भयंकर गिरा ॥ १ ॥
सियार कटकटाते हैं, भूत, प्रेत और पिशाच खोपड़ियाँ बटोर रहे हैं (अथवा खप्पर भर रहे हैं) । वीर-वैताल खोपड़ियों पर ताल दे रहे हैं और योगिनियाँ नाच रही हैं । श्री रघुवीर के प्रचंड बाण योद्धाओं के वक्षःस्थल, भुजा और सिरों के टुकड़े-टुकड़े कर डालते हैं । उनके धड़ जहाँ-तहाँ गिर पड़ते हैं, फिर उठते और लड़ते हैं और ‘पकड़ो-पकड़ो’ का भयंकर शब्द करते हैं ॥ १ ॥
अंतावरीं गहि उड़त गीध पिसाच कर गहि धावहीं ।
संग्राम पुर बासी मनहुँ बहु बाल गुड़ी उड़ावहीं ॥
मारे पछारे उर बिदारे बिपुल भट कहँरत परे ।
अवलोकि निज दल बिकल भट तिसिरादि खर दूषन फिरे ॥ २ ॥
अंतड़ियों के एक छोर को पकड़कर गीध उड़ते हैं और उन्हीं का दूसरा छोर हाथ से पकड़कर पिशाच दौड़ते हैं, ऐसा मालूम होता है मानो संग्राम रूपी नगर के निवासी बहुत से बालक पतंग उड़ा रहे हों । अनेकों योद्धा मारे और पछाड़े गए बहुत से, जिनके हृदय विदीर्ण हो गए हैं, पड़े कराह रहे हैं । अपनी सेना को व्याकुल देखर त्रिशिरा और खर-दूषण आदि योद्धा श्री रामजी की ओर मुड़े ॥ २ ॥
सरसक्ति तोमर परसु सूल कृपान एकहि बारहीं ।
करि कोप श्री रघुबीर पर अगनित निसाचर डारहीं ॥
प्रभु निमिष महुँ रिपु सर निवारि पचारि डारे सायका ।
दस दस बिसिख उर माझ मारे सकल निसिचर नायका ॥ ३ ॥
अनगिनत राक्षस क्रोध करके बाण, शक्ति, तोमर, फरसा, शूल और कृपाण एक ही बार में श्री रघुवीर पर छोड़ने लगे । प्रभु ने पल भर में शत्रुओं के बाणों को काटकर, ललकारकर उन पर अपने बाण छोड़े । सब राक्षस सेनापतियों के हृदय में दस-दस बाण मारे ॥ ३ ॥
महि परत उठि भट भिरत मरत न करत माया अति घनी ।
सुर डरत चौदह सहस प्रेत बिलोकि एक अवध धनी ॥
सुर मुनि सभय प्रभु देखि मायानाथ अति कौतुक कर्यो ।
देखहिं परसपर राम करि संग्राम रिपु दल लरि मर्यो ॥ ४ ॥
योद्धा पृथ्वी पर गिर पड़ते हैं, फिर उठकर भिड़ते हैं । मरते नहीं, बहुत प्रकार की अतिशय माया रचते हैं । देवता यह देखकर डरते हैं कि प्रेत (राक्षस) चौदह हजार हैं और अयोध्यानाथ श्री रामजी अकेले हैं । देवता और मुनियों को भयभीत देखकर माया के स्वामी प्रभु ने एक बड़ा कौतुक किया, जिससे शत्रुओं की सेना एक-दूसरे को राम रूप देखने लगी और आपस में ही युद्ध करके लड़ मरी ॥ ४ ॥
दोहा :
राम राम कहि तनु तजहिं पावहिं पद निर्बान ।
करि उपाय रिपु मारे छन महुँ कृपानिधान ॥ २० क ॥
सब (‘यही राम है, इसे मारो’ इस प्रकार) राम-राम कहकर शरीर छोड़ते हैं और निर्वाण (मोक्ष) पद पाते हैं । कृपानिधान श्री रामजी ने यह उपाय करके क्षण भर में शत्रुओं को मार डाला ॥ २० (क) ॥
हरषित बरषहिं सुमन सुर बाजहिं गगन निसान ।
अस्तुति करि करि सब चले सोभित बिबिध बिमान ॥ २० ख ॥
देवता हर्षित होकर फूल बरसाते हैं, आकाश में नगाड़े बज रहे हैं । फिर वे सब स्तुति कर-करके अनेकों विमानों पर सुशोभित हुए चले गए ॥ २० (ख) ॥
चौपाई :
जब रघुनाथ समर रिपु जीते । सुर नर मुनि सब के भय बीते ॥
तब लछिमन सीतहि लै आए । प्रभु पद परत हरषि उर लाए ॥ १ ॥
जब श्री रघुनाथजी ने युद्ध में शत्रुओं को जीत लिया तथा देवता, मनुष्य और मुनि सबके भय नष्ट हो गए, तब लक्ष्मणजी सीताजी को ले आए । चरणों में पड़ते हुए उनको प्रभु ने प्रसन्नतापूर्वक उठाकर हृदय से लगा लिया ॥ १ ॥
सीता चितव स्याम मृदु गाता । परम प्रेम लोचन न अघाता ॥
पंचबटीं बसि श्री रघुनायक । करत चरित सुर मुनि सुखदायक ॥ २ ॥
सीताजी श्री रामजी के श्याम और कोमल शरीर को परम प्रेम के साथ देख रही हैं, नेत्र अघाते नहीं हैं । इस प्रकार पंचवटी में बसकर श्री रघुनाथजी देवताओं और मुनियों को सुख देने वाले चरित्र करने लगे ॥ २ ॥
धुआँ देखि खरदूषन केरा । जाइ सुपनखाँ रावन प्रेरा ॥
बोली बचन क्रोध करि भारी । देस कोस कै सुरति बिसारी ॥ ३ ॥
खर-दूषण का विध्वंस देखकर शूर्पणखा ने जाकर रावण को भड़काया । वह बड़ा क्रोध करके वचन बोली- तूने देश और खजाने की सुधि ही भुला दी ॥ ३ ॥
करसि पान सोवसि दिनु राती । सुधि नहिं तव सिर पर आराती ॥
राज नीति बिनु धन बिनु धर्मा । हरिहि समर्पे बिनु सतकर्मा ॥ ४ ॥
बिद्या बिनु बिबेक उपजाएँ । श्रम फल पढ़ें किएँ अरु पाएँ ॥
संग तें जती कुमंत्र ते राजा । मान ते ग्यान पान तें लाजा ॥ ५ ॥
शराब पी लेता है और दिन-रात पड़ा सोता रहता है । तुझे खबर नहीं है कि शत्रु तेरे सिर पर खड़ा है? नीति के बिना राज्य और धर्म के बिना धन प्राप्त करने से, भगवान को समर्पण किए बिना उत्तम कर्म करने से और विवेक उत्पन्न किए बिना विद्या पढ़ने से परिणाम में श्रम ही हाथ लगता है । विषयों के संग से संन्यासी, बुरी सलाह से राजा, मान से ज्ञान, मदिरा पान से लज्जा, ॥ ४-५ ॥
प्रीति प्रनय बिनु मद ते गुनी । नासहिं बेगि नीति अस सुनी ॥ ६ ॥
नम्रता के बिना (नम्रता न होने से) प्रीति और मद (अहंकार) से गुणवान शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं, इस प्रकार नीति मैंने सुनी है ॥ ६ ॥