दोहा :
अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह ।
ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह ॥ १ ॥
श्री रघुनाथजी, जो अत्यन्त ही कृपालु हैं और जिनका दीनों पर सदा प्रेम रहता है, उनसे भी उस अवगुणों के घर मूर्ख जयन्त ने आकर छल किया ॥ १ ॥
चौपाई :
प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा । चला भाजि बायस भय पावा ॥
धरि निज रूप गयउ पितु पाहीं । राम बिमुख राखा तेहि नाहीं ॥ १ ॥
मंत्र से प्रेरित होकर वह ब्रह्मबाण दौड़ा । कौआ भयभीत होकर भाग चला । वह अपना असली रूप धरकर पिता इन्द्र के पास गया, पर श्री रामजी का विरोधी जानकर इन्द्र ने उसको नहीं रखा ॥ १ ॥
भा निरास उपजी मन त्रासा । जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा ॥
ब्रह्मधाम सिवपुर सब लोका । फिरा श्रमित ब्याकुल भय सोका ॥ २ ॥
तब वह निराश हो गया, उसके मन में भय उत्पन्न हो गया, जैसे दुर्वासा ऋषि को चक्र से भय हुआ था । वह ब्रह्मलोक, शिवलोक आदि समस्त लोकों में थका हुआ और भय-शोक से व्याकुल होकर भागता फिरा ॥ २ ॥
काहूँ बैठन कहा न ओही । राखि को सकइ राम कर द्रोही ॥
मातु मृत्यु पितु समन समाना । सुधा होइ बिष सुनु हरिजाना ॥ ३ ॥
(पर रखना तो दूर रहा) किसी ने उसे बैठने तक के लिए नहीं कहा । श्री रामजी के द्रोही को कौन रख सकता है? (काकभुशुण्डिजी कहते हैं - ) है गरुड़ ! सुनिए, उसके लिए माता मृत्यु के समान, पिता यमराज के समान और अमृत विष के समान हो जाता है ॥ ३ ॥
मित्र करइ सत रिपु कै करनी । ता कहँ बिबुधनदी बैतरनी ॥
सब जगु ताहि अनलहु ते ताता । जो रघुबीर बिमुख सुनु भ्राता ॥ ४ ॥
मित्र सैकड़ों शत्रुओं की सी करनी करने लगता है । देवनदी गंगाजी उसके लिए वैतरणी (यमपुरी की नदी) हो जाती है । हे भाई! सुनिए, जो श्री रघुनाथजी के विमुख होता है, समस्त जगत उनके लिए अग्नि से भी अधिक गरम (जलाने वाला) हो जाता है ॥ ४ ॥
नारद देखा बिकल जयंता । लगि दया कोमल चित संता ॥
पठवा तुरत राम पहिं ताही । कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही ॥ ५ ॥
नारदजी ने जयन्त को व्याकुल देखा तो उन्हें दया आ गई, क्योंकि संतों का चित्त बड़ा कोमल होता है । उन्होंने उसे (समझाकर) तुरंत श्री रामजी के पास भेज दिया । उसने (जाकर) पुकारकर कहा - हे शरणागत के हितकारी! मेरी रक्षा कीजिए ॥ ५ ॥
आतुर सभय गहेसि पद जाई । त्राहि त्राहि दयाल रघुराई ॥
अतुलित बल अतुलित प्रभुताई । मैं मतिमंद जानि नहीं पाई ॥ ६ ॥
आतुर और भयभीत जयन्त ने जाकर श्री रामजी के चरण पकड़ लिए (और कहा - ) हे दयालु रघुनाथजी! रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए । आपके अतुलित बल और आपकी अतुलित प्रभुता (सामर्थ्य) को मैं मन्दबुद्धि जान नहीं पाया था ॥ ६ ॥
निज कृत कर्म जनित फल पायउँ । अब प्रभु पाहि सरन तकि आयउँ ॥
सुनि कृपाल अति आरत बानी । एकनयन करि तजा भवानी ॥ ७ ॥
अपने कर्म से उत्पन्न हुआ फल मैंने पा लिया । अब हे प्रभु! मेरी रक्षा कीजिए । मैं आपकी शरण तक कर आया हूँ । (शिवजी कहते हैं - ) हे पार्वती! कृपालु श्री रघुनाथजी ने उसकी अत्यंत आर्त्त (दुःख भरी) वाणी सुनकर उसे एक आँख का काना करके छोड़ दिया ॥ ७ ॥
सोरठा :
कीन्ह मोह बस द्रोह जद्यपि तेहि कर बध उचित ।
प्रभु छाड़ेउ करि छोह को कृपाल रघुबीर सम ॥ २ ॥
उसने मोहवश द्रोह किया था, इसलिए यद्यपि उसका वध ही उचित था, पर प्रभु ने कृपा करके उसे छोड़ दिया । श्री रामजी के समान कृपालु और कौन होगा? ॥ २ ॥
चौपाई :
रघुपति चित्रकूट बसि नाना । चरित किए श्रुति सुधा समाना ॥
बहुरि राम अस मन अनुमाना । होइहि भीर सबहिं मोहि जाना ॥ १ ॥
चित्रकूट में बसकर श्री रघुनाथजी ने बहुत से चरित्र किए, जो कानों को अमृत के समान (प्रिय) हैं । फिर (कुछ समय पश्चात) श्री रामजी ने मन में ऐसा अनुमान किया कि मुझे सब लोग जान गए हैं, इससे (यहाँ) बड़ी भीड़ हो जाएगी ॥ १ ॥
सकल मुनिन्ह सन बिदा कराई । सीता सहित चले द्वौ भाई ॥
अत्रि के आश्रम जब प्रभु गयऊ । सुनत महामुनि हरषित भयऊ ॥ २ ॥
(इसलिए) सब मुनियों से विदा लेकर सीताजी सहित दोनों भाई चले! जब प्रभु अत्रिजी के आश्रम में गए, तो उनका आगमन सुनते ही महामुनि हर्षित हो गए ॥ २ ॥
पुलकित गात अत्रि उठि धाए । देखि रामु आतुर चलि आए ॥
करत दंडवत मुनि उर लाए । प्रेम बारि द्वौ जन अन्हवाए ॥ ३ ॥
शरीर पुलकित हो गया, अत्रिजी उठकर दौड़े । उन्हें दौड़े आते देखकर श्री रामजी और भी शीघ्रता से चले आए । दण्डवत करते हुए ही श्री रामजी को (उठाकर) मुनि ने हृदय से लगा लिया और प्रेमाश्रुओं के जल से दोनों जनों को (दोनों भाइयों को) नहला दिया ॥ ३ ॥
देखि राम छबि नयन जुड़ाने । सादर निज आश्रम तब आने ॥
करि पूजा कहि बचन सुहाए । दिए मूल फल प्रभु मन भाए ॥ ४ ॥
श्री रामजी की छवि देखकर मुनि के नेत्र शीतल हो गए । तब वे उनको आदरपूर्वक अपने आश्रम में ले आए । पूजन करके सुंदर वचन कहकर मुनि ने मूल और फल दिए, जो प्रभु के मन को बहुत रुचे ॥ ४ ॥