दोहा :

जानि सुअवसरु सीय तब पठई जनक बोलाइ ।
चतुर सखीं सुंदर सकल सादर चलीं ‍िलवाइ ॥ २४६ ॥

तब सुअवसर जानकर जनकजी ने सीताजी को बुला भेजा । सब चतुर और सुंदर सखियाँ आरदपूर्वक उन्हें लिवा चलीं ॥ २४६ ॥

चौपाई :

सिय सोभा नहिं जाइ बखानी । जगदंबिका रूप गुन खानी ॥
उपमा सकल मोहि लघु लागीं । प्राकृत नारि अंग अनुरागीं ॥ १ ॥

रूप और गुणों की खान जगज्जननी जानकीजी की शोभा का वर्णन नहीं हो सकता । उनके लिए मुझे (काव्य की) सब उपमाएँ तुच्छ लगती हैं, क्योंकि वे लौकिक स्त्रियों के अंगों से अनुराग रखने वाली हैं (अर्थात् वे जगत की स्त्रियों के अंगों को दी जाती हैं) । (काव्य की उपमाएँ सब त्रिगुणात्मक, मायिक जगत से ली गई हैं, उन्हें भगवान की स्वरूपा शक्ति श्री जानकीजी के अप्राकृत, चिन्मय अंगों के लिए प्रयुक्त करना उनका अपमान करना और अपने को उपहासास्पद बनाना है) ॥ १ ॥

सिय बरनिअ तेइ उपमा देई । कुकबि कहाइ अजसु को लेई ॥
जौं पटतरिअ तीय सम सीया । जग असि जुबति कहाँ कमनीया ॥ २ ॥

सीताजी के वर्णन में उन्हीं उपमाओं को देकर कौन कुकवि कहलाए और अपयश का भागी बने (अर्थात सीताजी के लिए उन उपमाओं का प्रयोग करना सुकवि के पद से च्युत होना और अपकीर्ति मोल लेना है, कोई भी सुकवि ऐसी नादानी एवं अनुचित कार्य नहीं करेगा । ) यदि किसी स्त्री के साथ सीताजी की तुलना की जाए तो जगत में ऐसी सुंदर युवती है ही कहाँ (जिसकी उपमा उन्हें दी जाए) ॥ २ ॥

गिरा मुखर तन अरध भवानी । रति अति दुखित अतनु पति जानी ॥
बिष बारुनी बंधु प्रिय जेही । कहिअ रमासम किमि बैदेही ॥ ३ ॥

(पृथ्वी की स्त्रियों की तो बात ही क्या, देवताओं की स्त्रियों को भी यदि देखा जाए तो हमारी अपेक्षा कहीं अधिक दिव्य और सुंदर हैं, तो उनमें) सरस्वती तो बहुत बोलने वाली हैं, पार्वती अंर्द्धांगिनी हैं (अर्थात अर्ध-नारीनटेश्वर के रूप में उनका आधा ही अंग स्त्री का है, शेष आधा अंग पुरुष-शिवजी का है), कामदेव की स्त्री रति पति को बिना शरीर का (अनंग) जानकर बहुत दुःखी रहती है और जिनके विष और मद्य-जैसे (समुद्र से उत्पन्न होने के नाते) प्रिय भाई हैं, उन लक्ष्मी के समान तो जानकीजी को कहा ही कैसे जाए ॥ ३ ॥

जौं छबि सुधा पयोनिधि होई । परम रूपमय कच्छपु सोई ॥
सोभा रजु मंदरु सिंगारू । मथै पानि पंकज निज मारू ॥ ४ ॥

(जिन लक्ष्मीजी की बात ऊपर कही गई है, वे निकली थीं खारे समुद्र से, जिसको मथने के लिए भगवान ने अति कर्कश पीठ वाले कच्छप का रूप धारण किया, रस्सी बनाई गई महान विषधर वासुकि नाग की, मथानी का कार्य किया अतिशय कठोर मंदराचल पर्वत ने और उसे मथा सारे देवताओं और दैत्यों ने मिलकर । जिन लक्ष्मी को अतिशय शोभा की खान और अनुपम सुंदरी कहते हैं, उनको प्रकट करने में हेतु बने ये सब असुंदर एवं स्वाभाविक ही कठोर उपकरण । ऐसे उपकरणों से प्रकट हुई लक्ष्मी श्री जानकीजी की समता को कैसे पा सकती हैं । हाँ, (इसके विपरीत) यदि छबि रूपी अमृत का समुद्र हो, परम रूपमय कच्छप हो, शोभा रूप रस्सी हो, श्रृंगार (रस) पर्वत हो और (उस छबि के समुद्र को) स्वयं कामदेव अपने ही करकमल से मथे, ॥ ४ ॥

दोहा :

एहि बिधि उपजै लच्छि जब सुंदरता सुख मूल ।
तदपि सकोच समेत कबि कहहिं सीय समतूल ॥ २४७ ॥

इस प्रकार (का संयोग होने से) जब सुंदरता और सुख की मूल लक्ष्मी उत्पन्न हो, तो भी कवि लोग उसे (बहुत) संकोच के साथ सीताजी के समान कहेंगे ॥ २४७ ॥ <

(जिस सुंदरता के समुद्र को कामदेव मथेगा वह सुंदरता भी प्राकृत, लौकिक सुंदरता ही होगी, क्योंकि कामदेव स्वयं भी त्रिगुणमयी प्रकृति का ही विकार है । अतः उस सुंदरता को मथकर प्रकट की हुई लक्ष्मी भी उपर्युक्त लक्ष्मी की अपेक्षा कहीं अधिक सुंदर और दिव्य होने पर भी होगी प्राकृत ही, अतः उसके साथ भी जानकीजी की तुलना करना कवि के लिए बड़े संकोच की बात होगी । जिस सुंदरता से जानकीजी का दिव्यातिदिव्य परम दिव्य विग्रह बना है, वह सुंदरता उपर्युक्त सुंदरता से भिन्न अप्राकृत है - वस्तुतः लक्ष्मीजी का अप्राकृत रूप भी यही है । वह कामदेव के मथने में नहीं आ सकती और वह जानकीजी का स्वरूप ही है, अतः उनसे भिन्न नहीं और उपमा दी जाती है भिन्न वस्तु के साथ । इसके अतिरिक्त जानकीजी प्रकट हुई हैं स्वयं अपनी महिमा से, उन्हें प्रकट करने के लिए किसी भिन्न उपकरण की अपेक्षा नहीं है । अर्थात शक्ति शक्तिमान से अभिन्न, अद्वैत तत्व है, अतएव अनुपमेय है, यही गूढ़ दार्शनिक तत्व भक्त शिरोमणि कवि ने इस अभूतोपमालंकार के द्वारा बड़ी सुंदरता से व्यक्त किया है । )

चौपाई :

चलीं संग लै सखीं सयानी । गावत गीत मनोहर बानी ॥
सोह नवल तनु सुंदर सारी । जगत जननि अतुलित छबि भारी ॥ १ ॥

सयानी सखियाँ सीताजी को साथ लेकर मनोहर वाणी से गीत गाती हुई चलीं । सीताजी के नवल शरीर पर सुंदर साड़ी सुशोभित है । जगज्जननी की महान छबि अतुलनीय है ॥ १ ॥

भूषन सकल सुदेस सुहाए । अंग अंग रचि सखिन्ह बनाए ॥
रंगभूमि जब सिय पगु धारी । देखि रूप मोहे नर नारी ॥ २ ॥

सब आभूषण अपनी-अपनी जगह पर शोभित हैं, जिन्हें सखियों ने अंग-अंग में भलीभाँति सजाकर पहनाया है । जब सीताजी ने रंगभूमि में पैर रखा, तब उनका (दिव्य) रूप देखकर स्त्री, पुरुष सभी मोहित हो गए ॥ २ ॥

हरषि सुरन्ह दुंदुभीं बजाईं । बरषि प्रसून अपछरा गाईं ॥
पानि सरोज सोह जयमाला । अवचट चितए सकल भुआला ॥ ३ ॥

देवताओं ने हर्षित होकर नगाड़े बजाए और पुष्प बरसाकर अप्सराएँ गाने लगीं । सीताजी के करकमलों में जयमाला सुशोभित है । सब राजा चकित होकर अचानक उनकी ओर देखने लगे ॥ ३ ॥

सीय चकित चित रामहि चाहा । भए मोहबस सब नरनाहा ॥
मुनि समीप देखे दोउ भाई । लगे ललकि लोचन निधि पाई ॥ ४ ॥

सीताजी चकित चित्त से श्री रामजी को देखने लगीं, तब सब राजा लोग मोह के वश हो गए । सीताजी ने मुनि के पास (बैठे हुए) दोनों भाइयों को देखा तो उनके नेत्र अपना खजाना पाकर ललचाकर वहीं (श्री रामजी में) जा लगे (स्थिर हो गए) ॥ ४ ॥

दोहा :

गुरजन लाज समाजु बड़ देखि सीय सकुचानि ।
लागि बिलोकन सखिन्ह तन रघुबीरहि उर आनि ॥ २४८ ॥

परन्तु गुरुजनों की लाज से तथा बहुत बड़े समाज को देखकर सीताजी सकुचा गईं । वे श्री रामचन्द्रजी को हृदय में लाकर सखियों की ओर देखने लगीं ॥ २४८ ॥

चौपाई :

राम रूपु अरु सिय छबि देखें । नर नारिन्ह परिहरीं निमेषें ॥
सोचहिं सकल कहत सकुचाहीं । बिधि सन बिनय करहिं मन माहीं ॥ १ ॥

श्री रामचन्द्रजी का रूप और सीताजी की छबि देखकर स्त्री-पुरुषों ने पलक मारना छोड़ दिया (सब एकटक उन्हीं को देखने लगे) । सभी अपने मन में सोचते हैं, पर कहते सकुचाते हैं । मन ही मन वे विधाता से विनय करते हैं - ॥ १ ॥

हरु बिधि बेगि जनक जड़ताई । मति हमारि असि देहि सुहाई ॥
बिनु बिचार पनु तजि नरनाहू । सीय राम कर करै बिबाहू ॥ २ ॥

हे विधाता! जनक की मूढ़ता को शीघ्र हर लीजिए और हमारी ही ऐसी सुंदर बुद्धि उन्हें दीजिए कि जिससे बिना ही विचार किए राजा अपना प्रण छोड़कर सीताजी का विवाह रामजी से कर दें ॥ २ ॥

जगु भल कहिहि भाव सब काहू । हठ कीन्हें अंतहुँ उर दाहू ॥
एहिं लालसाँ मगन सब लोगू । बरु साँवरो जानकी जोगू ॥ ३ ॥

संसार उन्हें भला कहेगा, क्योंकि यह बात सब किसी को अच्छी लगती है । हठ करने से अंत में भी हृदय जलेगा । सब लोग इसी लालसा में मग्न हो रहे हैं कि जानकीजी के योग्य वर तो यह साँवला ही है ॥ ३ ॥

तब बंदीजन जनक बोलाए । बिरिदावली कहत चलि आए ॥
कह नृपु जाइ कहहु पन मोरा । चले भाट हियँ हरषु न थोरा ॥ ४ ॥

तब राजा जनक ने वंदीजनों (भाटों) को बुलाया । वे विरुदावली (वंश की कीर्ति) गाते हुए चले आए । राजा ने कहा - जाकर मेरा प्रण सबसे कहो । भाट चले, उनके हृदय में कम आनंद न था ॥ ४ ॥