दोहा :

उठे लखनु निसि बिगत सुनि अरुनसिखा धुनि कान ।
गुर तें पहिलेहिं जगतपति जागे रामु सुजान ॥ २२६ ॥

रात बीतने पर, मुर्गे का शब्द कानों से सुनकर लक्ष्मणजी उठे । जगत के स्वामी सुजान श्री रामचन्द्रजी भी गुरु से पहले ही जाग गए ॥ २२६ ॥

चौपाई :

सकल सौच करि जाइ नहाए । नित्य निबाहि मुनिहि सिर नाए ॥
समय जानि गुर आयसु पाई । लेन प्रसून चले दोउ भाई ॥ १ ॥

सब शौचक्रिया करके वे जाकर नहाए । फिर (संध्या-अग्निहोत्रादि) नित्यकर्म समाप्त करके उन्होंने मुनि को मस्तक नवाया । (पूजा का) समय जानकर, गुरु की आज्ञा पाकर दोनों भाई फूल लेने चले ॥ १ ॥

भूप बागु बर देखेउ जाई । जहँ बसंत रितु रही लोभाई ॥
लागे बिटप मनोहर नाना । बरन बरन बर बेलि बिताना ॥ २ ॥

उन्होंने जाकर राजा का सुंदर बाग देखा, जहाँ वसंत ऋतु लुभाकर रह गई है । मन को लुभाने वाले अनेक वृक्ष लगे हैं । रंग-बिरंगी उत्तम लताओं के मंडप छाए हुए हैं ॥ २ ॥

नव पल्लव फल सुमन सुहाए । निज संपति सुर रूख लजाए ॥
चातक कोकिल कीर चकोरा । कूजत बिहग नटत कल मोरा ॥ ३ ॥

नए, पत्तों, फलों और फूलों से युक्त सुंदर वृक्ष अपनी सम्पत्ति से कल्पवृक्ष को भी लजा रहे हैं । पपीहे, कोयल, तोते, चकोर आदि पक्षी मीठी बोली बोल रहे हैं और मोर सुंदर नृत्य कर रहे हैं ॥ ३ ॥

मध्य बाग सरु सोह सुहावा । मनि सोपान बिचित्र बनावा ॥
बिमल सलिलु सरसिज बहुरंगा । जलखग कूजत गुंजत भृंगा ॥ ४ ॥

बाग के बीचोंबीच सुहावना सरोवर सुशोभित है, जिसमें मणियों की सीढ़ियाँ विचित्र ढंग से बनी हैं । उसका जल निर्मल है, जिसमें अनेक रंगों के कमल खिले हुए हैं, जल के पक्षी कलरव कर रहे हैं और भ्रमर गुंजार कर रहे हैं ॥ ४ ॥

दोहा :

बागु तड़ागु बिलोकि प्रभु हरषे बंधु समेत ।
परम रम्य आरामु यहु जो रामहि सुख देत ॥ २२७ ॥

बाग और सरोवर को देखकर प्रभु श्री रामचन्द्रजी भाई लक्ष्मण सहित हर्षित हुए । यह बाग (वास्तव में) परम रमणीय है, जो (जगत को सुख देने वाले) श्री रामचन्द्रजी को सुख दे रहा है ॥ २२७ ॥

चौपाई :

चहुँ दिसि चितइ पूँछि मालीगन । लगे लेन दल फूल मुदित मन ॥
तेहि अवसर सीता तहँ आई । गिरिजा पूजन जननि पठाई ॥ १ ॥

चारों ओर दृष्टि डालकर और मालियों से पूछकर वे प्रसन्न मन से पत्र-पुष्प लेने लगे । उसी समय सीताजी वहाँ आईं । माता ने उन्हें गिरिजाजी (पार्वती) की पूजा करने के लिए भेजा था ॥ १ ॥

संग सखीं सब सुभग सयानीं । गावहिं गीत मनोहर बानीं ॥
सर समीप गिरिजा गृह सोहा । बरनि न जाइ देखि मनु मोहा ॥ २ ॥

साथ में सब सुंदरी और सयानी सखियाँ हैं, जो मनोहर वाणी से गीत गा रही हैं । सरोवर के पास गिरिजाजी का मंदिर सुशोभित है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, देखकर मन मोहित हो जाता है ॥ । २ ॥

मज्जनु करि सर सखिन्ह समेता । गई मुदित मन गौरि निकेता ॥
पूजा कीन्हि अधिक अनुरागा । निज अनुरूप सुभग बरु मागा ॥ ३ ॥

सखियों सहित सरोवर में स्नान करके सीताजी प्रसन्न मन से गिरिजाजी के मंदिर में गईं । उन्होंने बड़े प्रेम से पूजा की और अपने योग्य सुंदर वर माँगा ॥ ३ ॥

एक सखी सिय संगु बिहाई । गई रही देखन फुलवाई ॥
तेहिं दोउ बंधु बिलोके जाई । प्रेम बिबस सीता पहिं आई ॥ ४ ॥

एक सखी सीताजी का साथ छोड़कर फुलवाड़ी देखने चली गई थी । उसने जाकर दोनों भाइयों को देखा और प्रेम में विह्वल होकर वह सीताजी के पास आई ॥ ४ ॥

दोहा :

तासु दसा देखी सखिन्ह पुलक गात जलु नैन ।
कहु कारनु निज हरष कर पूछहिं सब मृदु बैन ॥ २२८ ॥

सखियों ने उसकी दशा देखी कि उसका शरीर पुलकित है और नेत्रों में जल भरा है । सब कोमल वाणी से पूछने लगीं कि अपनी प्रसन्नता का कारण बता ॥ २२८ ॥

चौपाई :

देखन बागु कुअँर दुइ आए । बय किसोर सब भाँति सुहाए ॥
स्याम गौर किमि कहौं बखानी । गिरा अनयन नयन बिनु बानी ॥ १ ॥

(उसने कहा - ) दो राजकुमार बाग देखने आए हैं । किशोर अवस्था के हैं और सब प्रकार से सुंदर हैं । वे साँवले और गोरे (रंग के) हैं, उनके सौंदर्य को मैं कैसे बखानकर कहूँ । वाणी बिना नेत्र की है और नेत्रों के वाणी नहीं है ॥ १ ॥

सुनि हरषीं सब सखीं सयानी । सिय हियँ अति उतकंठा जानी ॥
एक कहइ नृपसुत तेइ आली । सुने जे मुनि सँग आए काली ॥ २ ॥

यह सुनकर और सीताजी के हृदय में बड़ी उत्कंठा जानकर सब सयानी सखियाँ प्रसन्न हुईं । तब एक सखी कहने लगी- हे सखी! ये वही राजकुमार हैं, जो सुना है कि कल विश्वामित्र मुनि के साथ आए हैं ॥ २ ॥

जिन्ह निज रूप मोहनी डारी । कीन्हे स्वबस नगर नर नारी ॥
बरनत छबि जहँ तहँ सब लोगू । अवसि देखिअहिं देखन जोगू ॥ ३ ॥

और जिन्होंने अपने रूप की मोहिनी डालकर नगर के स्त्री-पुरुषों को अपने वश में कर लिया है । जहाँ-तहाँ सब लोग उन्हीं की छबि का वर्णन कर रहे हैं । अवश्य (चलकर) उन्हें देखना चाहिए, वे देखने ही योग्य हैं ॥ ३ ॥

तासु बचन अति सियहि सोहाने । दरस लागि लोचन अकुलाने ॥
चली अग्र करि प्रिय सखि सोई । प्रीति पुरातन लखइ न कोई ॥ ४ ॥

उसके वचन सीताजी को अत्यन्त ही प्रिय लगे और दर्शन के लिए उनके नेत्र अकुला उठे । उसी प्यारी सखी को आगे करके सीताजी चलीं । पुरानी प्रीति को कोई लख नहीं पाता ॥ ४ ॥

दोहा :

सुमिरि सीय नारद बचन उपजी प्रीति पुनीत ।
चकित बिलोकति सकल दिसि जनु सिसु मृगी सभीत ॥ २२९ ॥

नारदजी के वचनों का स्मरण करके सीताजी के मन में पवित्र प्रीति उत्पन्न हुई । वे चकित होकर सब ओर इस तरह देख रही हैं, मानो डरी हुई मृगछौनी इधर-उधर देख रही हो ॥ २२९ ॥

चौपाई :

कंकन किंकिनि नूपुर धुनि सुनि । कहत लखन सन रामु हृदयँ गुनि ॥
मानहुँ मदन दुंदुभी दीन्ही । मनसा बिस्व बिजय कहँ कीन्ही ॥ १ ॥

कंकण (हाथों के कड़े), करधनी और पायजेब के शब्द सुनकर श्री रामचन्द्रजी हृदय में विचार कर लक्ष्मण से कहते हैं - (यह ध्वनि ऐसी आ रही है) मानो कामदेव ने विश्व को जीतने का संकल्प करके डंके पर चोट मारी है ॥ १ ॥

अस कहि फिरि चितए तेहि ओरा । सिय मुख ससि भए नयन चकोरा ॥
भए बिलोचन चारु अचंचल । मनहुँ सकुचि निमि तजे दिगंचल ॥ २ ॥

ऐसा कहकर श्री रामजी ने फिर कर उस ओर देखा । श्री सीताजी के मुख रूपी चन्द्रमा (को निहारने) के लिए उनके नेत्र चकोर बन गए । सुंदर नेत्र स्थिर हो गए (टकटकी लग गई) । मानो निमि (जनकजी के पूर्वज) ने (जिनका सबकी पलकों में निवास माना गया है, लड़की-दामाद के मिलन-प्रसंग को देखना उचित नहीं, इस भाव से) सकुचाकर पलकें छोड़ दीं, (पलकों में रहना छोड़ दिया, जिससे पलकों का गिरना रुक गया) ॥ २ ॥

देखि सीय शोभा सुखु पावा । हृदयँ सराहत बचनु न आवा ॥
जनु बिरंचि सब निज निपुनाई । बिरचि बिस्व कहँ प्रगटि देखाई ॥ ३ ॥

सीताजी की शोभा देखकर श्री रामजी ने बड़ा सुख पाया । हृदय में वे उसकी सराहना करते हैं, किन्तु मुख से वचन नहीं निकलते । (वह शोभा ऐसी अनुपम है) मानो ब्रह्मा ने अपनी सारी निपुणता को मूर्तिमान कर संसार को प्रकट करके दिखा दिया हो ॥ ३ ॥

सुंदरता कहुँ सुंदर करई । छबिगृहँ दीपसिखा जनु बरई ॥
सब उपमा कबि रहे जुठारी । केहिं पटतरौं बिदेहकुमारी ॥ ४ ॥

वह (सीताजी की शोभा) सुंदरता को भी सुंदर करने वाली है । (वह ऐसी मालूम होती है) मानो सुंदरता रूपी घर में दीपक की लौ जल रही हो । (अब तक सुंदरता रूपी भवन में अँधेरा था, वह भवन मानो सीताजी की सुंदरता रूपी दीपशिखा को पाकर जगमगा उठा है, पहले से भी अधिक सुंदर हो गया है) । सारी उपमाओं को तो कवियों ने जूँठा कर रखा है । मैं जनकनन्दिनी श्री सीताजी की किससे उपमा दूँ ॥ ४ ॥

दोहा :

सिय शोभा हियँ बरनि प्रभु आपनि दसा बिचारि ॥
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि ॥ २३० ॥

(इस प्रकार) हृदय में सीताजी की शोभा का वर्णन करके और अपनी दशा को विचारकर प्रभु श्री रामचन्द्रजी पवित्र मन से अपने छोटे भाई लक्ष्मण से समयानुकूल वचन बोले - ॥ २३० ॥

चौपाई :

तात जनकतनया यह सोई । धनुषजग्य जेहि कारन होई ॥
पूजन गौरि सखीं लै आईं । करत प्रकासु फिरइ फुलवाईं ॥ १ ॥

हे तात! यह वही जनकजी की कन्या है, जिसके लिए धनुषयज्ञ हो रहा है । सखियाँ इसे गौरी पूजन के लिए ले आई हैं । यह फुलवाड़ी में प्रकाश करती हुई फिर रही है ॥ १ ॥

जासु बिलोकि अलौकिक सोभा । सहज पुनीत मोर मनु छोभा ॥
सो सबु कारन जान बिधाता । फरकहिं सुभद अंग सुनु भ्राता ॥ २ ॥

जिसकी अलौकिक सुंदरता देखकर स्वभाव से ही पवित्र मेरा मन क्षुब्ध हो गया है । वह सब कारण (अथवा उसका सब कारण) तो विधाता जानें, किन्तु हे भाई! सुनो, मेरे मंगलदायक (दाहिने) अंग फड़क रहे हैं ॥ २ ॥

रघुबंसिन्ह कर सहज सुभाऊ । मनु कुपंथ पगु धरइ न काऊ ॥
मोहि अतिसय प्रतीति मन केरी । जेहिं सपनेहुँ परनारि न हेरी ॥ ३ ॥

रघुवंशियों का यह सहज (जन्मगत) स्वभाव है कि उनका मन कभी कुमार्ग पर पैर नहीं रखता । मुझे तो अपने मन का अत्यन्त ही विश्वास है कि जिसने (जाग्रत की कौन कहे) स्वप्न में भी पराई स्त्री पर दृष्टि नहीं डाली है ॥ ३ ॥

जिन्ह कै लहहिं न रिपु रन पीठी । नहिं पावहिं परतिय मनु डीठी ॥
मंगन लहहिं न जिन्ह कै नाहीं । ते नरबर थोरे जग माहीं ॥ ४ ॥

रण में शत्रु जिनकी पीठ नहीं देख पाते (अर्थात् जो लड़ाई के मैदान से भागते नहीं), पराई स्त्रियाँ जिनके मन और दृष्टि को नहीं खींच पातीं और भिखारी जिनके यहाँ से ‘नाहीं’ नहीं पाते (खाली हाथ नहीं लौटते), ऐसे श्रेष्ठ पुरुष संसार में थोड़े हैं ॥ ४ ॥

दोहा :

करत बतकही अनुज सन मन सिय रूप लोभान ।
मुख सरोज मकरंद छबि करइ मधुप इव पान ॥ २३१ ॥

यों श्री रामजी छोटे भाई से बातें कर रहे हैं, पर मन सीताजी के रूप में लुभाया हुआ उनके मुखरूपी कमल के छबि रूप मकरंद रस को भौंरे की तरह पी रहा है ॥ २३१ ॥

चौपाई :

चितवति चकित चहूँ दिसि सीता । कहँ गए नृप किसोर मनु चिंता ॥
जहँ बिलोक मृग सावक नैनी । जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी ॥ १ ॥

सीताजी चकित होकर चारों ओर देख रही हैं । मन इस बात की चिन्ता कर रहा है कि राजकुमार कहाँ चले गए । बाल मृगनयनी (मृग के छौने की सी आँख वाली) सीताजी जहाँ दृष्टि डालती हैं, वहाँ मानो श्वेत कमलों की कतार बरस जाती है ॥ १ ॥

लता ओट तब सखिन्ह लखाए । स्यामल गौर किसोर सुहाए ॥
देखि रूप लोचन ललचाने । हरषे जनु निज निधि पहिचाने ॥ २ ॥

तब सखियों ने लता की ओट में सुंदर श्याम और गौर कुमारों को दिखलाया । उनके रूप को देखकर नेत्र ललचा उठे, वे ऐसे प्रसन्न हुए मानो उन्होंने अपना खजाना पहचान लिया ॥ २ ॥

थके नयन रघुपति छबि देखें । पलकन्हिहूँ परिहरीं निमेषें ॥
अधिक सनेहँ देह भै भोरी । सरद ससिहि जनु चितव चकोरी ॥ ३ ॥

श्री रघुनाथजी की छबि देखकर नेत्र थकित (निश्चल) हो गए । पलकों ने भी गिरना छोड़ दिया । अधिक स्नेह के कारण शरीर विह्वल (बेकाबू) हो गया । मानो शरद ऋतु के चन्द्रमा को चकोरी (बेसुध हुई) देख रही हो ॥ ३ ॥

लोचन मग रामहि उर आनी । दीन्हे पलक कपाट सयानी ॥
जब सिय सखिन्ह प्रेमबस जानी । कहि न सकहिं कछु मन सकुचानी ॥ ४ ॥

नेत्रों के रास्ते श्री रामजी को हृदय में लाकर चतुरशिरोमणि जानकीजी ने पलकों के किवाड़ लगा दिए (अर्थात नेत्र मूँदकर उनका ध्यान करने लगीं) । जब सखियों ने सीताजी को प्रेम के वश जाना, तब वे मन में सकुचा गईं, कुछ कह नहीं सकती थीं ॥ ४ ॥

दोहा :

लताभवन तें प्रगट भे तेहि अवसर दोउ भाइ ।
तकिसे जनु जुग बिमल बिधु जलद पटल बिलगाई ॥ २३२ ॥

उसी समय दोनों भाई लता मंडप (कुंज) में से प्रकट हुए । मानो दो निर्मल चन्द्रमा बादलों के परदे को हटाकर निकले हों ॥ २३२ ॥

चौपाई :

सोभा सीवँ सुभग दोउ बीरा । नील पीत जलजाभ सरीरा ॥
मोरपंख सिर सोहत नीके । गुच्छ बीच बिच कुसुम कली के ॥ १ ॥

दोनों सुंदर भाई शोभा की सीमा हैं । उनके शरीर की आभा नीले और पीले कमल की सी है । सिर पर सुंदर मोरपंख सुशोभित हैं । उनके बीच-बीच में फूलों की कलियों के गुच्छे लगे हैं ॥ १ ॥

भाल तिलक श्रम बिन्दु सुहाए । श्रवन सुभग भूषन छबि छाए ॥
बिकट भृकुटि कच घूघरवारे । नव सरोज लोचन रतनारे ॥ २ ॥

माथे पर तिलक और पसीने की बूँदें शोभायमान हैं । कानों में सुंदर भूषणों की छबि छाई है । टेढ़ी भौंहें और घुँघराले बाल हैं । नए लाल कमल के समान रतनारे (लाल) नेत्र हैं ॥ २ ॥

चारु चिबुक नासिका कपोला । हास बिलास लेत मनु मोला ॥
मुखछबि कहि न जाइ मोहि पाहीं । जो बिलोकि बहु काम लजाहीं ॥ ३ ॥

ठोड़ी नाक और गाल बड़े सुंदर हैं और हँसी की शोभा मन को मोल लिए लेती है । मुख की छबि तो मुझसे कही ही नहीं जाती, जिसे देखकर बहुत से कामदेव लजा जाते हैं ॥ ३ ॥

उर मनि माल कंबु कल गीवा । काम कलभ कर भुज बलसींवा ॥
सुमन समेत बाम कर दोना । सावँर कुअँर सखी सुठि लोना ॥ ४ ॥

वक्षःस्थल पर मणियों की माला है । शंख के सदृश सुंदर गला है । कामदेव के हाथी के बच्चे की सूँड के समान (उतार-चढ़ाव वाली एवं कोमल) भुजाएँ हैं, जो बल की सीमा हैं । जिसके बाएँ हाथ में फूलों सहित दोना है, हे सखि! वह साँवला कुँअर तो बहुत ही सलोना है ॥ ४ ॥

दोहा :

केहरि कटि पट पीत धर सुषमा सील निधान ।
देखि भानुकुलभूषनहि बिसरा सखिन्ह अपान ॥ २३३ ॥

सिंह की सी (पतली, लचीली) कमर वाले, पीताम्बर धारण किए हुए, शोभा और शील के भंडार, सूर्यकुल के भूषण श्री रामचन्द्रजी को देखकर सखियाँ अपने आपको भूल गईं ॥ २३३ ॥

चौपाई :

धरि धीरजु एक आलि सयानी । सीता सन बोली गहि पानी ॥
बहुरि गौरि कर ध्यान करेहू । भूपकिसोर देखि किन लेहू ॥ १ ॥

एक चतुर सखी धीरज धरकर, हाथ पकड़कर सीताजी से बोली- गिरिजाजी का ध्यान फिर कर लेना, इस समय राजकुमार को क्यों नहीं देख लेतीं ॥ १ ॥

सकुचि सीयँ तब नयन उघारे । सनमुख दोउ रघुसिंघ निहारे ॥
नख सिख देखि राम कै सोभा । सुमिरि पिता पनु मनु अति छोभा ॥ २ ॥

तब सीताजी ने सकुचाकर नेत्र खोले और रघुकुल के दोनों सिंहों को अपने सामने (खड़े) देखा । नख से शिखा तक श्री रामजी की शोभा देखकर और फिर पिता का प्रण याद करके उनका मन बहुत क्षुब्ध हो गया ॥ २ ॥

परबस सखिन्ह लखी जब सीता । भयउ गहरु सब कहहिं सभीता ॥
पुनि आउब एहि बेरिआँ काली । अस कहि मन बिहसी एक आली ॥ ३ ॥

जब सखियों ने सीताजी को परवश (प्रेम के वश) देखा, तब सब भयभीत होकर कहने लगीं- बड़ी देर हो गई । (अब चलना चाहिए) । कल इसी समय फिर आएँगी, ऐसा कहकर एक सखी मन में हँसी ॥ ३ ॥

गूढ़ गिरा सुनि सिय सकुचानी । भयउ बिलंबु मातु भय मानी ॥
धरि बड़ि धीर रामु उर आने । फिरी अपनपउ पितुबस जाने ॥ ४ ॥

सखी की यह रहस्यभरी वाणी सुनकर सीताजी सकुचा गईं । देर हो गई जान उन्हें माता का भय लगा । बहुत धीरज धरकर वे श्री रामचन्द्रजी को हृदय में ले आईं और (उनका ध्यान करती हुई) अपने को पिता के अधीन जानकर लौट चलीं ॥ ४ ॥