दोहा :
आयुध सर्ब समर्पि कै प्रभु निज आश्रम आनि ।
कंद मूल फल भोजन दीन्ह भगति हित जानि ॥ २०९ ॥
सब अस्त्र-शस्त्र समर्पण करके मुनि प्रभु श्री रामजी को अपने आश्रम में ले आए और उन्हें परम हितू जानकर भक्तिपूर्वक कंद, मूल और फल का भोजन कराया ॥ २०९ ॥
चौपाई :
प्रात कहा मुनि सन रघुराई । निर्भय जग्य करहु तुम्ह जाई ॥
होम करन लागे मुनि झारी । आपु रहे मख कीं रखवारी ॥ १ ॥
सबेरे श्री रघुनाथजी ने मुनि से कहा - आप जाकर निडर होकर यज्ञ कीजिए । यह सुनकर सब मुनि हवन करने लगे । आप (श्री रामजी) यज्ञ की रखवाली पर रहे ॥ १ ॥
सुनि मारीच निसाचर क्रोही । लै सहाय धावा मुनिद्रोही ॥
बिनु फर बान राम तेहि मारा । सत जोजन गा सागर पारा ॥ २ ॥
यह समाचार सुनकर मुनियों का शत्रु कोरथी राक्षस मारीच अपने सहायकों को लेकर दौड़ा । श्री रामजी ने बिना फल वाला बाण उसको मारा, जिससे वह सौ योजन के विस्तार वाले समुद्र के पार जा गिरा ॥ २ ॥
पावक सर सुबाहु पुनि मारा । अनुज निसाचर कटकु सँघारा ॥
मारि असुर द्विज निर्भयकारी । अस्तुति करहिं देव मुनि झारी ॥ ३ ॥
फिर सुबाहु को अग्निबाण मारा । इधर छोटे भाई लक्ष्मणजी ने राक्षसों की सेना का संहार कर डाला । इस प्रकार श्री रामजी ने राक्षसों को मारकर ब्राह्मणों को निर्भय कर दिया । तब सारे देवता और मुनि स्तुति करने लगे ॥ ३ ॥
तहँ पुनि कछुक दिवस रघुराया । रहे कीन्हि बिप्रन्ह पर दाया ॥
भगति हेतु बहुत कथा पुराना । कहे बिप्र जद्यपि प्रभु जाना ॥ ४ ॥
श्री रघुनाथजी ने वहाँ कुछ दिन और रहकर ब्राह्मणों पर दया की । भक्ति के कारण ब्राह्मणों ने उन्हें पुराणों की बहुत सी कथाएँ कहीं, यद्यपि प्रभु सब जानते थे ॥ ४ ॥
तब मुनि सादर कहा बुझाई । चरित एक प्रभु देखिअ जाई ॥
धनुषजग्य सुनि रघुकुल नाथा । हरषि चले मुनिबर के साथा ॥ ५ ॥
तदन्तर मुनि ने आदरपूर्वक समझाकर कहा - हे प्रभो! चलकर एक चरित्र देखिए । रघुकुल के स्वामी श्री रामचन्द्रजी धनुषयज्ञ (की बात) सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्रजी के साथ प्रसन्न होकर चले ॥ ५ ॥
आश्रम एक दीख मग माहीं । खग मृग जीव जंतु तहँ नाहीं ॥
पूछा मुनिहि सिला प्रभु देखी । सकल कथा मुनि कहा बिसेषी ॥ ६ ॥
मार्ग में एक आश्रम दिखाई पड़ा । वहाँ पशु-पक्षी, को भी जीव-जन्तु नहीं था । पत्थर की एक शिला को देखकर प्रभु ने पूछा, तब मुनि ने विस्तारपूर्वक सब कथा कही ॥ ६ ॥