दोहा :
जानि सभय सुर भूमि सुनि बचन समेत सनेह ।
गगनगिरा गंभीर भइ हरनि सोक संदेह ॥ १८६ ॥
देवताओं और पृथ्वी को भयभीत जानकर और उनके स्नेहयुक्त वचन सुनकर शोक और संदेह को हरने वाली गंभीर आकाशवाणी हुई ॥ १८६ ॥
चौपाई :
जनि डरपहु मुनि सिद्ध सुरेसा । तुम्हहि लागि धरिहउँ नर बेसा ॥
अंसन्ह सहित मनुज अवतारा । लेहउँ दिनकर बंस उदारा ॥ १ ॥
हे मुनि, सिद्ध और देवताओं के स्वामियों! डरो मत । तुम्हारे लिए मैं मनुष्य का रूप धारण करूँगा और उदार (पवित्र) सूर्यवंश में अंशों सहित मनुष्य का अवतार लूँगा ॥ १ ॥
कस्यप अदिति महातप कीन्हा । तिन्ह कहुँ मैं पूरब बर दीन्हा ॥
ते दसरथ कौसल्या रूपा । कोसलपुरीं प्रगट नर भूपा ॥ २ ॥
कश्यप और अदिति ने बड़ा भारी तप किया था । मैं पहले ही उनको वर दे चुका हूँ । वे ही दशरथ और कौसल्या के रूप में मनुष्यों के राजा होकर श्री अयोध्यापुरी में प्रकट हुए हैं ॥ २ ॥
तिन्ह कें गृह अवतरिहउँ जाई । रघुकुल तिलक सो चारिउ भाई ॥
नारद बचन सत्य सब करिहउँ । परम सक्ति समेत अवतरिहउँ ॥ ३ ॥
उन्हीं के घर जाकर मैं रघुकुल में श्रेष्ठ चार भाइयों के रूप में अवतार लूँगा । नारद के सब वचन मैं सत्य करूँगा और अपनी पराशक्ति के सहित अवतार लूँगा ॥ ३ ॥
हरिहउँ सकल भूमि गरुआई । निर्भय होहु देव समुदाई ॥
गगन ब्रह्मबानी सुनि काना । तुरत फिरे सुर हृदय जुड़ाना ॥ ४ ॥
मैं पृथ्वी का सब भार हर लूँगा । हे देववृंद! तुम निर्भय हो जाओ । आकाश में ब्रह्म (भगवान) की वाणी को कान से सुनकर देवता तुरंत लौट गए । उनका हृदय शीतल हो गया ॥ ४ ॥
तब ब्रह्माँ धरनिहि समुझावा । अभय भई भरोस जियँ आवा ॥ ५ ॥
तब ब्रह्माजी ने पृथ्वी को समझाया । वह भी निर्भय हुई और उसके जी में भरोसा (ढाढस) आ गया ॥ ५ ॥
दोहा :
निज लोकहि बिरंचि गे देवन्ह इहइ सिखाइ ।
बानर तनु धरि धरि महि हरि पद सेवहु जाइ ॥ १८७ ॥
देवताओं को यही सिखाकर कि वानरों का शरीर धर-धरकर तुम लोग पृथ्वी पर जाकर भगवान के चरणों की सेवा करो, ब्रह्माजी अपने लोक को चले गए ॥ १८७ ॥
चौपाई :
गए देव सब निज निज धामा । भूमि सहित मन कहुँ बिश्रामा ॥
जो कछु आयसु ब्रह्माँ दीन्हा । हरषे देव बिलंब न कीन्हा ॥ १ ॥
सब देवता अपने-अपने लोक को गए । पृथ्वी सहित सबके मन को शांति मिली । ब्रह्माजी ने जो कुछ आज्ञा दी, उससे देवता बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने (वैसा करने में) देर नहीं की ॥ १ ॥
बनचर देह धरी छिति माहीं । अतुलित बल प्रताप तिन्ह पाहीं ॥
गिरि तरु नख आयुध सब बीरा । हरि मारग चितवहिं मतिधीरा ॥ २ ॥
पृथ्वी पर उन्होंने वानरदेह धारण की । उनमें अपार बल और प्रताप था । सभी शूरवीर थे, पर्वत, वृक्ष और नख ही उनके शस्त्र थे । वे धीर बुद्धि वाले (वानर रूप देवता) भगवान के आने की राह देखने लगे ॥ २ ॥
गिरि कानन जहँ तहँ भरि पूरी । रहे निज निज अनीक रचि रूरी ॥
यह सब रुचिर चरित मैं भाषा । अब सो सुनहु जो बीचहिं राखा ॥ ३ ॥
वे (वानर) पर्वतों और जंगलों में जहाँ-तहाँ अपनी-अपनी सुंदर सेना बनाकर भरपूर छा गए । यह सब सुंदर चरित्र मैंने कहा । अब वह चरित्र सुनो जिसे बीच ही में छोड़ दिया था ॥ ३ ॥
अवधपुरीं रघुकुलमनि राऊ । बेद बिदित तेहि दसरथ नाऊँ ॥
धरम धुरंधर गुननिधि ग्यानी । हृदयँ भगति भति सारँगपानी ॥ ४ ॥
अवधपुरी में रघुकुल शिरोमणि दशरथ नाम के राजा हुए, जिनका नाम वेदों में विख्यात है । वे धर्मधुरंधर, गुणों के भंडार और ज्ञानी थे । उनके हृदय में शांर्गधनुष धारण करने वाले भगवान की भक्ति थी और उनकी बुद्धि भी उन्हीं में लगी रहती थी ॥ ४ ॥