दोहा :
आनि देखाई नारदहि भूपति राजकुमारि ।
कहहु नाथ गुन दोष सब एहि के हृदयँ बिचारि ॥ १३० ॥
(फिर) राजा ने राजकुमारी को लाकर नारदजी को दिखलाया (और पूछा कि - ) हे नाथ! आप अपने हृदय में विचार कर इसके सब गुण-दोष कहिए ॥ १३० ॥
चौपाई :
देखि रूप मुनि बिरति बिसारी । बड़ी बार लगि रहे निहारी ॥
लच्छन तासु बिलोकि भुलाने । हृदयँ हरष नहिं प्रगट बखाने ॥ १ ॥
उसके रूप को देखकर मुनि वैराग्य भूल गए और बड़ी देर तक उसकी ओर देखते ही रह गए । उसके लक्षण देखकर मुनि अपने आपको भी भूल गए और हृदय में हर्षित हुए, पर प्रकट रूप में उन लक्षणों को नहीं कहा ॥ १ ॥
जो एहि बरइ अमर सोइ होई । समरभूमि तेहि जीत न कोई ॥
सेवहिं सकल चराचर ताही । बरइ सीलनिधि कन्या जाही ॥ २ ॥
(लक्षणों को सोचकर वे मन में कहने लगे कि) जो इसे ब्याहेगा, वह अमर हो जाएगा और रणभूमि में कोई उसे जीत न सकेगा । यह शीलनिधि की कन्या जिसको वरेगी, सब चर-अचर जीव उसकी सेवा करेंगे ॥ २ ॥
लच्छन सब बिचारि उर राखे । कछुक बनाइ भूप सन भाषे ॥
सुता सुलच्छन कहि नृप पाहीं । नारद चले सोच मन माहीं ॥ ३ ॥
सब लक्षणों को विचारकर मुनि ने अपने हृदय में रख लिया और राजा से कुछ अपनी ओर से बनाकर कह दिए । राजा से लड़की के सुलक्षण कहकर नारदजी चल दिए । पर उनके मन में यह चिन्ता थी कि - ॥ ३ ॥
करौं जाइ सोइ जतन बिचारी । जेहि प्रकार मोहि बरै कुमारी ॥
जप तप कछु न होइ तेहि काला । हे बिधि मिलइ कवन बिधि बाला ॥ ४ ॥
मैं जाकर सोच-विचारकर अब वही उपाय करूँ, जिससे यह कन्या मुझे ही वरे । इस समय जप-तप से तो कुछ हो नहीं सकता । हे विधाता! मुझे यह कन्या किस तरह मिलेगी? ॥ ४ ॥
दोहा :
एहि अवसर चाहिअ परम सोभा रूप बिसाल ।
जो बिलोकि रीझै कुअँरि तब मेलै जयमाल ॥ १३१ ॥
इस समय तो बड़ी भारी शोभा और विशाल (सुंदर) रूप चाहिए, जिसे देखकर राजकुमारी मुझ पर रीझ जाए और तब जयमाल (मेरे गले में) डाल दे ॥ १३१ ॥
चौपाई :
हरि सन मागौं सुंदरताई । होइहि जात गहरु अति भाई ॥
मोरें हित हरि सम नहिं कोऊ । एहि अवसर सहाय सोइ होऊ ॥ १ ॥
(एक काम करूँ कि) भगवान से सुंदरता माँगूँ, पर भाई! उनके पास जाने में तो बहुत देर हो जाएगी, किन्तु श्री हरि के समान मेरा हितू भी कोई नहीं है, इसलिए इस समय वे ही मेरे सहायक हों ॥ १ ॥
बहुबिधि बिनय कीन्हि तेहि काला । प्रगटेउ प्रभु कौतुकी कृपाला ॥
प्रभु बिलोकि मुनि नयन जुड़ाने । होइहि काजु हिएँ हरषाने ॥ २ ॥
उस समय नारदजी ने भगवान की बहुत प्रकार से विनती की । तब लीलामय कृपालु प्रभु (वहीं) प्रकट हो गए । स्वामी को देखकर नारदजी के नेत्र शीतल हो गए और वे मन में बड़े ही हर्षित हुए कि अब तो काम बन ही जाएगा ॥ २ ॥
अति आरति कहि कथा सुनाई । करहु कृपा करि होहु सहाई ॥
आपन रूप देहु प्रभु मोहीं । आन भाँति नहिं पावौं ओही ॥ ३ ॥
नारदजी ने बहुत आर्त (दीन) होकर सब कथा कह सुनाई (और प्रार्थना की कि) कृपा कीजिए और कृपा करके मेरे सहायक बनिए । हे प्रभो! आप अपना रूप मुझको दीजिए और किसी प्रकार मैं उस (राजकन्या) को नहीं पा सकता ॥ ३ ॥
जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा । करहु सो बेगि दास मैं तोरा ॥
निज माया बल देखि बिसाला । हियँ हँसि बोले दीनदयाला ॥ ४ ॥
हे नाथ! जिस तरह मेरा हित हो, आप वही शीघ्र कीजिए । मैं आपका दास हूँ । अपनी माया का विशाल बल देख दीनदयालु भगवान मन ही मन हँसकर बोले - ॥ ४ ॥
दोहा :
जेहि बिधि होइहि परम हित नारद सुनहु तुम्हार ।
सोइ हम करब न आन कछु बचन न मृषा हमार ॥ १३२ ॥
हे नारदजी! सुनो, जिस प्रकार आपका परम हित होगा, हम वही करेंगे, दूसरा कुछ नहीं । हमारा वचन असत्य नहीं होता ॥ १३२ ॥
चौपाई :
कुपथ माग रुज ब्याकुल रोगी । बैद न देइ सुनहु मुनि जोगी ॥
एहि बिधि हित तुम्हार मैं ठयऊ । कहि अस अंतरहित प्रभु भयऊ ॥ १ ॥
हे योगी मुनि! सुनिए, रोग से व्याकुल रोगी कुपथ्य माँगे तो वैद्य उसे नहीं देता । इसी प्रकार मैंने भी तुम्हारा हित करने की ठान ली है । ऐसा कहकर भगवान अन्तर्धान हो गए ॥ १ ॥
माया बिबस भए मुनि मूढ़ा । समुझी नहिं हरि गिरा निगूढ़ा ॥
गवने तुरत तहाँ रिषिराई । जहाँ स्वयंबर भूमि बनाई ॥ २ ॥
(भगवान की) माया के वशीभूत हुए मुनि ऐसे मूढ़ हो गए कि वे भगवान की अगूढ़ (स्पष्ट) वाणी को भी न समझ सके । ऋषिराज नारदजी तुरंत वहाँ गए जहाँ स्वयंवर की भूमि बनाई गई थी ॥ २ ॥
निज निज आसन बैठे राजा । बहु बनाव करि सहित समाजा ॥
मुनि मन हरष रूप अति मोरें । मोहि तजि आनहि बरिहि न भोरें ॥ ३ ॥
राजा लोग खूब सज-धजकर समाज सहित अपने-अपने आसन पर बैठे थे । मुनि (नारद) मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे कि मेरा रूप बड़ा सुंदर है, मुझे छोड़ कन्या भूलकर भी दूसरे को न वरेगी ॥ ३ ॥
मुनि हित कारन कृपानिधाना । दीन्ह कुरूप न जाइ बखाना ॥
सो चरित्र लखि काहुँ न पावा । नारद जानि सबहिं सिर नावा ॥ ४ ॥
कृपानिधान भगवान ने मुनि के कल्याण के लिए उन्हें ऐसा कुरूप बना दिया कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता, पर यह चरित कोई भी न जान सका । सबने उन्हें नारद ही जानकर प्रणाम किया ॥ ४ ॥
दोहा :
रहे तहाँ दुइ रुद्र गन ते जानहिं सब भेउ ।
बिप्रबेष देखत फिरहिं परम कौतुकी तेउ ॥ १३३ ॥
वहाँ शिवजी के दो गण भी थे । वे सब भेद जानते थे और ब्राह्मण का वेष बनाकर सारी लीला देखते-फिरते थे । वे भी बड़े मौजी थे ॥ १३३ ॥
चौपाई :
जेहिं समाज बैठे मुनि जाई । हृदयँ रूप अहमिति अधिकाई ॥
तहँ बैठे महेस गन दोऊ । बिप्रबेष गति लखइ न कोऊ ॥ १ ॥
नारदजी अपने हृदय में रूप का बड़ा अभिमान लेकर जिस समाज (पंक्ति) में जाकर बैठे थे, ये शिवजी के दोनों गण भी वहीं बैठ गए । ब्राह्मण के वेष में होने के कारण उनकी इस चाल को कोई न जान सका ॥ १ ॥
करहिं कूटि नारदहि सुनाई । नीकि दीन्हि हरि सुंदरताई ॥
रीझिहि राजकुअँरि छबि देखी । इन्हहि बरिहि हरि जानि बिसेषी ॥ २ ॥
वे नारदजी को सुना-सुनाकर, व्यंग्य वचन कहते थे- भगवान ने इनको अच्छी ‘सुंदरता’ दी है । इनकी शोभा देखकर राजकुमारी रीझ ही जाएगी और ‘हरि’ (वानर) जानकर इन्हीं को खास तौर से वरेगी ॥ २ ॥
मुनिहि मोह मन हाथ पराएँ । हँसहिं संभु गन अति सचु पाएँ ॥
जदपि सुनहिं मुनि अटपटि बानी । समुझि न परइ बुद्धि भ्रम सानी ॥ ३ ॥
नारद मुनि को मोह हो रहा था, क्योंकि उनका मन दूसरे के हाथ (माया के वश) में था । शिवजी के गण बहुत प्रसन्न होकर हँस रहे थे । यद्यपि मुनि उनकी अटपटी बातें सुन रहे थे, पर बुद्धि भ्रम में सनी हुई होने के कारण वे बातें उनकी समझ में नहीं आती थीं (उनकी बातों को वे अपनी प्रशंसा समझ रहे थे) ॥ ३ ॥
काहुँ न लखा सो चरित बिसेषा । सो सरूप नृपकन्याँ देखा ॥
मर्कट बदन भयंकर देही । देखत हृदयँ क्रोध भा तेही ॥ ४ ॥
इस विशेष चरित को और किसी ने नहीं जाना, केवल राजकन्या ने (नारदजी का) वह रूप देखा । उनका बंदर का सा मुँह और भयंकर शरीर देखते ही कन्या के हृदय में क्रोध उत्पन्न हो गया ॥ ४ ॥
दोहा :
सखीं संग लै कुअँरि तब चलि जनु राजमराल ।
देखत फिरइ महीप सब कर सरोज जयमाल ॥ १३४ ॥
तब राजकुमारी सखियों को साथ लेकर इस तरह चली मानो राजहंसिनी चल रही है । वह अपने कमल जैसे हाथों में जयमाला लिए सब राजाओं को देखती हुई घूमने लगी ॥ १३४ ॥
चौपाई :
जेहि दिसि बैठे नारद फूली । सो दिसि तेहिं न बिलोकी भूली ॥
पुनि-पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं । देखि दसा हर गन मुसुकाहीं ॥ १ ॥
जिस ओर नारदजी (रूप के गर्व में) फूले बैठे थे, उस ओर उसने भूलकर भी नहीं ताका । नारद मुनि बार-बार उचकते और छटपटाते हैं । उनकी दशा देखकर शिवजी के गण मुसकराते हैं ॥ १ ॥
धरि नृपतनु तहँ गयउ कृपाला । कुअँरि हरषि मेलेउ जयमाला ॥
दुलहिनि लै गे लच्छिनिवासा । नृपसमाज सब भयउ निरासा ॥ २ ॥
कृपालु भगवान भी राजा का शरीर धारण कर वहाँ जा पहुँचे । राजकुमारी ने हर्षित होकर उनके गले में जयमाला डाल दी । लक्ष्मीनिवास भगवान दुलहिन को ले गए । सारी राजमंडली निराश हो गई ॥ २ ॥
मुनि अति बिकल मोहँ मति नाठी । मनि गिरि गई छूटि जनु गाँठी ॥
तब हर गन बोले मुसुकाई । निज मुख मुकुर बिलोकहु जाई ॥ ३ ॥
मोह के कारण मुनि की बुद्धि नष्ट हो गई थी, इससे वे (राजकुमारी को गई देख) बहुत ही विकल हो गए । मानो गाँठ से छूटकर मणि गिर गई हो । तब शिवजी के गणों ने मुसकराकर कहा - जाकर दर्पण में अपना मुँह तो देखिए! ॥ ३ ॥
अस कहि दोउ भागे भयँ भारी । बदन दीख मुनि बारि निहारी ॥
बेषु बिलोकि क्रोध अति बाढ़ा । तिन्हहि सराप दीन्ह अति गाढ़ा ॥ ४ ॥
ऐसा कहकर वे दोनों बहुत भयभीत होकर भागे । मुनि ने जल में झाँककर अपना मुँह देखा । अपना रूप देखकर उनका क्रोध बहुत बढ़ गया । उन्होंने शिवजी के उन गणों को अत्यन्त कठोर शाप दिया- ॥ ४ ॥
दोहा :
होहु निसाचर जाइ तुम्ह कपटी पापी दोउ ।
हँसेहु हमहि सो लेहु फल बहुरि हँसेहु मुनि कोउ ॥ । १३५ ॥
तुम दोनों कपटी और पापी जाकर राक्षस हो जाओ । तुमने हमारी हँसी की, उसका फल चखो । अब फिर किसी मुनि की हँसी करना । १३५ ॥
चौपाई :
पुनि जल दीख रूप निज पावा । तदपि हृदयँ संतोष न आवा ॥
फरकत अधर कोप मन माहीं । सपदि चले कमलापति पाहीं ॥ १ ॥
मुनि ने फिर जल में देखा, तो उन्हें अपना (असली) रूप प्राप्त हो गया, तब भी उन्हें संतोष नहीं हुआ । उनके होठ फड़क रहे थे और मन में क्रोध (भरा) था । तुरंत ही वे भगवान कमलापति के पास चले ॥ १ ॥
देहउँ श्राप कि मरिहउँ जाई । जगत मोरि उपहास कराई ॥
बीचहिं पंथ मिले दनुजारी । संग रमा सोइ राजकुमारी ॥ २ ॥
(मन में सोचते जाते थे-) जाकर या तो शाप दूँगा या प्राण दे दूँगा । उन्होंने जगत में मेरी हँसी कराई । दैत्यों के शत्रु भगवान हरि उन्हें बीच रास्ते में ही मिल गए । साथ में लक्ष्मीजी और वही राजकुमारी थीं ॥ २ ॥
बोले मधुर बचन सुरसाईं । मुनि कहँ चले बिकल की नाईं ॥
सुनत बचन उपजा अति क्रोधा । माया बस न रहा मन बोधा ॥ ३ ॥
देवताओं के स्वामी भगवान ने मीठी वाणी में कहा - हे मुनि! व्याकुल की तरह कहाँ चले? ये शब्द सुनते ही नारद को बड़ा क्रोध आया, माया के वशीभूत होने के कारण मन में चेत नहीं रहा ॥ ३ ॥
पर संपदा सकहु नहिं देखी । तुम्हरें इरिषा कपट बिसेषी ॥
मथत सिंधु रुद्रहि बौरायहु । सुरन्ह प्रेरि बिष पान करायहु ॥ ४ ॥
(मुनि ने कहा - ) तुम दूसरों की सम्पदा नहीं देख सकते, तुम्हारे ईर्ष्या और कपट बहुत है । समुद्र मथते समय तुमने शिवजी को बावला बना दिया और देवताओं को प्रेरित करके उन्हें विषपान कराया ॥ ४ ॥
दोहा :
असुर सुरा बिष संकरहि आपु रमा मनि चारु ।
स्वारथ साधक कुटिल तुम्ह सदा कपट ब्यवहारु ॥ १३६ ॥
असुरों को मदिरा और शिवजी को विष देकर तुमने स्वयं लक्ष्मी और सुंदर (कौस्तुभ) मणि ले ली । तुम बड़े धोखेबाज और मतलबी हो । सदा कपट का व्यवहार करते हो ॥ १३६ ॥
चौपाई :
परम स्वतंत्र न सिर पर कोई । भावइ मनहि करहु तुम्ह सोई ॥
भलेहि मंद मंदेहि भल करहू । बिसमय हरष न हियँ कछु धरहू ॥ १ ॥
तुम परम स्वतंत्र हो, सिर पर तो कोई है नहीं, इससे जब जो मन को भाता है, (स्वच्छन्दता से) वही करते हो । भले को बुरा और बुरे को भला कर देते हो । हृदय में हर्ष-विषाद कुछ भी नहीं लाते ॥ १ ॥
डहकि डहकि परिचेहु सब काहू । अति असंक मन सदा उछाहू ॥
करम सुभासुभ तुम्हहि न बाधा । अब लगि तुम्हहि न काहूँ साधा ॥ २ ॥
सबको ठग-ठगकर परक गए हो और अत्यन्त निडर हो गए हो, इसी से (ठगने के काम में) मन में सदा उत्साह रहता है । शुभ-अशुभ कर्म तुम्हें बाधा नहीं देते । अब तक तुम को किसी ने ठीक नहीं किया था ॥ २ ॥
भले भवन अब बायन दीन्हा । पावहुगे फल आपन कीन्हा ॥
बंचेहु मोहि जवनि धरि देहा । सोइ तनु धरहु श्राप मम एहा ॥ ३ ॥
अबकी तुमने अच्छे घर बैना दिया है (मेरे जैसे जबर्दस्त आदमी से छेड़खानी की है । ) अतः अपने किए का फल अवश्य पाओगे । जिस शरीर को धारण करके तुमने मुझे ठगा है, तुम भी वही शरीर धारण करो, यह मेरा शाप है ॥ ३ ॥
कपि आकृति तुम्ह कीन्हि हमारी । करिहहिं कीस सहाय तुम्हारी ॥
मम अपकार कीन्ह तुम्ह भारी । नारि बिरहँ तुम्ह होब दुखारी ॥ ४ ॥
तुमने हमारा रूप बंदर का सा बना दिया था, इससे बंदर ही तुम्हारी सहायता करेंगे । (मैं जिस स्त्री को चाहता था, उससे मेरा वियोग कराकर) तुमने मेरा बड़ा अहित किया है, इससे तुम भी स्त्री के वियोग में दुःखी होंगे ॥ ४ ॥
दोहा :
श्राप सीस धरि हरषि हियँ प्रभु बहु बिनती कीन्हि ॥
निज माया कै प्रबलता करषि कृपानिधि लीन्हि ॥ १३७ ॥
शाप को सिर पर चढ़ाकर, हृदय में हर्षित होते हुए प्रभु ने नारदजी से बहुत विनती की और कृपानिधान भगवान ने अपनी माया की प्रबलता खींच ली ॥ १३७ ॥
चौपाई :
जब हरि माया दूरि निवारी । नहिं तहँ रमा न राजकुमारी ॥
तब मुनि अति सभीत हरि चरना । गहे पाहि प्रनतारति हरना ॥ १ ॥
जब भगवान ने अपनी माया को हटा लिया, तब वहाँ न लक्ष्मी ही रह गईं, न राजकुमारी ही । तब मुनि ने अत्यन्त भयभीत होकर श्री हरि के चरण पकड़ लिए और कहा - हे शरणागत के दुःखों को हरने वाले! मेरी रक्षा कीजिए ॥ १ ॥
मृषा होउ मम श्राप कृपाला । मम इच्छा कह दीनदयाला ॥
मैं दुर्बचन कहे बहुतेरे । कह मुनि पाप मिटिहिं किमि मेरे ॥ २ ॥
हे कृपालु! मेरा शाप मिथ्या हो जाए । तब दीनों पर दया करने वाले भगवान ने कहा कि यह सब मेरी ही इच्छा (से हुआ) है । मुनि ने कहा - मैंने आप को अनेक खोटे वचन कहे हैं । मेरे पाप कैसे मिटेंगे? ॥ २ ॥
जपहु जाइ संकर सत नामा । होइहि हृदयँ तुरत बिश्रामा ॥
कोउ नहिं सिव समान प्रिय मोरें । असि परतीति तजहु जनि भोरें ॥ ३ ॥
(भगवान ने कहा - ) जाकर शंकरजी के शतनाम का जप करो, इससे हृदय में तुरंत शांति होगी । शिवजी के समान मुझे कोई प्रिय नहीं है, इस विश्वास को भूलकर भी न छोड़ना ॥ ३ ॥
जेहि पर कृपा न करहिं पुरारी । सो न पाव मुनि भगति हमारी ॥
अस उर धरि महि बिचरहु जाई । अब न तुम्हहि माया निअराई ॥ ४ ॥
हे मुनि ! पुरारि (शिवजी) जिस पर कृपा नहीं करते, वह मेरी भक्ति नहीं पाता । हृदय में ऐसा निश्चय करके जाकर पृथ्वी पर विचरो । अब मेरी माया तुम्हारे निकट नहीं आएगी ॥ ४ ॥
दोहा :
बहुबिधि मुनिहि प्रबोधि प्रभु तब भए अंतरधान ।
सत्यलोक नारद चले करत राम गुन गान ॥ १३८ ॥
बहुत प्रकार से मुनि को समझा-बुझाकर (ढाँढस देकर) तब प्रभु अंतर्द्धान हो गए और नारदजी श्री रामचन्द्रजी के गुणों का गान करते हुए सत्य लोक (ब्रह्मलोक) को चले ॥ १३८ ॥
चौपाई :
हर गन मुनिहि जात पथ देखी । बिगत मोह मन हरष बिसेषी ॥
अति सभीत नारद पहिं आए । गहि पद आरत बचन सुहाए ॥ १ ॥
शिवजी के गणों ने जब मुनि को मोहरहित और मन में बहुत प्रसन्न होकर मार्ग में जाते हुए देखा तब वे अत्यन्त भयभीत होकर नारदजी के पास आए और उनके चरण पकड़कर दीन वचन बोले - ॥ १ ॥
हर गन हम न बिप्र मुनिराया । बड़ अपराध कीन्ह फल पाया ॥
श्राप अनुग्रह करहु कृपाला । बोले नारद दीनदयाला ॥ २ ॥
हे मुनिराज! हम ब्राह्मण नहीं हैं, शिवजी के गण हैं । हमने बड़ा अपराध किया, जिसका फल हमने पा लिया । हे कृपालु! अब शाप दूर करने की कृपा कीजिए । दीनों पर दया करने वाले नारदजी ने कहा - ॥ २ ॥
निसिचर जाइ होहु तुम्ह दोऊ । बैभव बिपुल तेज बल होऊ ॥
भुज बल बिस्व जितब तुम्ह जहिआ । धरिहहिं बिष्नु मनुज तनु तहिआ ॥ ३ ॥
तुम दोनों जाकर राक्षस होओ, तुम्हें महान ऐश्वर्य, तेज और बल की प्राप्ति हो । तुम अपनी भुजाओं के बल से जब सारे विश्व को जीत लोगे, तब भगवान विष्णु मनुष्य का शरीर धारण करेंगे ॥ ३ ॥
समर मरन हरि हाथ तुम्हारा । होइहहु मुकुत न पुनि संसारा ॥
चले जुगल मुनि पद सिर नाई । भए निसाचर कालहि पाई ॥ ४ ॥
युद्ध में श्री हरि के हाथ से तुम्हारी मृत्यु होगी, जिससे तुम मुक्त हो जाओगे और फिर संसार में जन्म नहीं लोगे । वे दोनों मुनि के चरणों में सिर नवाकर चले और समय पाकर राक्षस हुए ॥ ४ ॥
दोहा :
एक कलप एहि हेतु प्रभु लीन्ह मनुज अवतार ।
सुर रंजन सज्जन सुखद हरि भंजन भुमि भार ॥ १३९ ॥
देवताओं को प्रसन्न करने वाले, सज्जनों को सुख देने वाले और पृथ्वी का भार हरण करने वाले भगवान ने एक कल्प में इसी कारण मनुष्य का अवतार लिया था ॥ १३९ ॥
चौपाई :
एहि बिधि जनम करम हरि केरे । सुंदर सुखद बिचित्र घनेरे ॥
कलप कलप प्रति प्रभु अवतरहीं । चारु चरित नानाबिधि करहीं ॥ १ ॥
इस प्रकार भगवान के अनेक सुंदर, सुखदायक और अलौकिक जन्म और कर्म हैं । प्रत्येक कल्प में जब-जब भगवान अवतार लेते हैं और नाना प्रकार की सुंदर लीलाएँ करते हैं, ॥ १ ॥
तब-तब कथा मुनीसन्ह गाई । परम पुनीत प्रबंध बनाई ॥
बिबिध प्रसंग अनूप बखाने । करहिं न सुनि आचरजु सयाने ॥ २ ॥
तब-तब मुनीश्वरों ने परम पवित्र काव्य रचना करके उनकी कथाओं का गान किया है और भाँति-भाँति के अनुपम प्रसंगों का वर्णन किया है, जिनको सुनकर समझदार (विवेकी) लोग आश्चर्य नहीं करते ॥ २ ॥
हरि अनंत हरि कथा अनंता । कहहिं सुनहिं बहुबिधि सब संता ॥
रामचंद्र के चरित सुहाए । कलप कोटि लगि जाहिं न गाए ॥ ३ ॥
श्री हरि अनंत हैं (उनका कोई पार नहीं पा सकता) और उनकी कथा भी अनंत है । सब संत लोग उसे बहुत प्रकार से कहते-सुनते हैं । श्री रामचन्द्रजी के सुंदर चरित्र करोड़ों कल्पों में भी गाए नहीं जा सकते ॥ ३ ॥
यह प्रसंग मैं कहा भवानी । हरिमायाँ मोहहिं मुनि ग्यानी ॥
प्रभु कौतुकी प्रनत हितकारी । सेवत सुलभ सकल दुखहारी ॥ ४ ॥
(शिवजी कहते हैं कि) हे पार्वती! मैंने यह बताने के लिए इस प्रसंग को कहा कि ज्ञानी मुनि भी भगवान की माया से मोहित हो जाते हैं । प्रभु कौतुकी (लीलामय) हैं और शरणागत का हित करने वाले हैं । वे सेवा करने में बहुत सुलभ और सब दुःखों के हरने वाले हैं ॥ ४ ॥
सोरठा :
सुर नर मुनि कोउ नाहिं जेहि न मोह माया प्रबल ।
अस बिचारि मन माहिं भजिअ महामाया पतिहि ॥ १४० ॥
देवता, मनुष्य और मुनियों में ऐसा कोई नहीं है, जिसे भगवान की महान बलवती माया मोहित न कर दे । मन में ऐसा विचारकर उस महामाया के स्वामी (प्रेरक) श्री भगवान का भजन करना चाहिए ॥ १४० ॥
चौपाई :
अपर हेतु सुनु सैलकुमारी । कहउँ बिचित्र कथा बिस्तारी ॥
जेहि कारन अज अगुन अरूपा । ब्रह्म भयउ कोसलपुर भूपा ॥ १ ॥
हे गिरिराजकुमारी! अब भगवान के अवतार का वह दूसरा कारण सुनो- मैं उसकी विचित्र कथा विस्तार करके कहता हूँ- जिस कारण से जन्मरहित, निर्गुण और रूपरहित (अव्यक्त सच्चिदानंदघन) ब्रह्म अयोध्यापुरी के राजा हुए ॥ १ ॥
जो प्रभु बिपिन फिरत तुम्ह देखा । बंधु समेत धरें मुनिबेषा ॥
जासु चरित अवलोकि भवानी । सती सरीर रहिहु बौरानी ॥ २ ॥
जिन प्रभु श्री रामचन्द्रजी को तुमने भाई लक्ष्मणजी के साथ मुनियों का सा वेष धारण किए वन में फिरते देखा था और हे भवानी! जिनके चरित्र देखकर सती के शरीर में तुम ऐसी बावली हो गई थीं कि - ॥ २ ॥
अजहुँ न छाया मिटति तुम्हारी । तासु चरित सुनु भ्रम रुज हारी ॥
लीला कीन्हि जो तेहिं अवतारा । सो सब कहिहउँ मति अनुसारा ॥ ३ ॥
अब भी तुम्हारे उस बावलेपन की छाया नहीं मिटती, उन्हीं के भ्रम रूपी रोग के हरण करने वाले चरित्र सुनो । उस अवतार में भगवान ने जो-जो लीला की, वह सब मैं अपनी बुद्धि के अनुसार तुम्हें कहूँगा ॥ ३ ॥
भरद्वाज सुनि संकर बानी । सकुचि सप्रेम उमा मुसुकानी ॥
लगे बहुरि बरनै बृषकेतू । सो अवतार भयउ जेहि हेतू ॥ ४ ॥
(याज्ञवल्क्यजी ने कहा - ) हे भरद्वाज! शंकरजी के वचन सुनकर पार्वतीजी सकुचाकर प्रेमसहित मुस्कुराईं । फिर वृषकेतु शिवजी जिस कारण से भगवान का वह अवतार हुआ था, उसका वर्णन करने लगे ॥ ४ ॥