दोहा :
अब बिनती मम सुनहु सिव जौं मो पर निज नेहु ।
जाइ बिबाहहु सैलजहि यह मोहि मागें देहु ॥ ७६ ॥
(फिर उन्होंने शिवजी से कहा - ) हे शिवजी! यदि मुझ पर आपका स्नेह है, तो अब आप मेरी विनती सुनिए । मुझे यह माँगें दीजिए कि आप जाकर पार्वती के साथ विवाह कर लें ॥ ७६ ॥
चौपाई :
कह सिव जदपि उचित अस नाहीं । नाथ बचन पुनि मेटि न जाहीं ॥
सिर धरि आयसु करिअ तुम्हारा । परम धरमु यह नाथ हमारा ॥ १ ॥
शिवजी ने कहा - यद्यपि ऐसा उचित नहीं है, परन्तु स्वामी की बात भी मेटी नहीं जा सकती । हे नाथ! मेरा यही परम धर्म है कि मैं आपकी आज्ञा को सिर पर रखकर उसका पालन करूँ ॥ १ ॥
मातु पिता गुर प्रभु कै बानी । बिनहिं बिचार करिअ सुभ जानी ॥
तुम्ह सब भाँति परम हितकारी । अग्या सिर पर नाथ तुम्हारी ॥ २ ॥
माता, पिता, गुरु और स्वामी की बात को बिना ही विचारे शुभ समझकर करना (मानना) चाहिए । फिर आप तो सब प्रकार से मेरे परम हितकारी हैं । हे नाथ! आपकी आज्ञा मेरे सिर पर है ॥ २ ॥
प्रभु तोषेउ सुनि संकर बचना । भक्ति बिबेक धर्म जुत रचना ॥
कह प्रभु हर तुम्हार पन रहेऊ । अब उर राखेहु जो हम कहेऊ ॥ ३ ॥
शिवजी की भक्ति, ज्ञान और धर्म से युक्त वचन रचना सुनकर प्रभु रामचन्द्रजी संतुष्ट हो गए । प्रभु ने कहा - हे हर! आपकी प्रतिज्ञा पूरी हो गई । अब हमने जो कहा है, उसे हृदय में रखना ॥ ३ ॥
अंतरधान भए अस भाषी । संकर सोइ मूरति उर राखी ॥
तबहिं सप्तरिषि सिव पहिं आए । बोले प्रभु अति बचन सुहाए ॥ ४ ॥
इस प्रकार कहकर श्री रामचन्द्रजी अन्तर्धान हो गए । शिवजी ने उनकी वह मूर्ति अपने हृदय में रख ली । उसी समय सप्तर्षि शिवजी के पास आए । प्रभु महादेवजी ने उनसे अत्यन्त सुहावने वचन कहे - ॥ ४ ॥
दोहा :
पारबती पहिं जाइ तुम्ह प्रेम परिच्छा लेहु ।
गिरिहि प्रेरि पठएहु भवन दूरि करेहु संदेहु ॥ ७७ ॥
आप लोग पार्वती के पास जाकर उनके प्रेम की परीक्षा लीजिए और हिमाचल को कहकर (उन्हें पार्वती को लिवा लाने के लिए भेजिए तथा) पार्वती को घर भिजवाइए और उनके संदेह को दूर कीजिए ॥ ७७ ॥