दोहा :
सिव अपमानु न जाइ सहि हृदयँ न होइ प्रबोध ।
सकल सभहि हठि हटकि तब बोलीं बचन सक्रोध ॥ ६३ ॥
परन्तु उनसे शिवजी का अपमान सहा नहीं गया, इससे उनके हृदय में कुछ भी प्रबोध नहीं हुआ । तब वे सारी सभा को हठपूर्वक डाँटकर क्रोधभरे वचन बोलीं - ॥ ६३ ॥
चौपाई :
सुनहु सभासद सकल मुनिंदा । कही सुनी जिन्ह संकर निंदा ॥
सो फलु तुरत लहब सब काहूँ । भली भाँति पछिताब पिताहूँ ॥ १ ॥
हे सभासदों और सब मुनीश्वरो! सुनो । जिन लोगों ने यहाँ शिवजी की निंदा की या सुनी है, उन सबको उसका फल तुरंत ही मिलेगा और मेरे पिता दक्ष भी भलीभाँति पछताएँगे ॥ १ ॥
संत संभु श्रीपति अपबादा । सुनिअ जहाँ तहँ असि मरजादा ॥
काटिअ तासु जीभ जो बसाई । श्रवन मूदि न त चलिअ पराई ॥ २ ॥
जहाँ संत, शिवजी और लक्ष्मीपति श्री विष्णु भगवान की निंदा सुनी जाए, वहाँ ऐसी मर्यादा है कि यदि अपना वश चले तो उस (निंदा करने वाले) की जीभ काट लें और नहीं तो कान मूँदकर वहाँ से भाग जाएँ ॥ २ ॥
जगदातमा महेसु पुरारी । जगत जनक सब के हितकारी ॥
पिता मंदमति निंदत तेही । दच्छ सुक्र संभव यह देही ॥ ३ ॥
त्रिपुर दैत्य को मारने वाले भगवान महेश्वर सम्पूर्ण जगत की आत्मा हैं, वे जगत्पिता और सबका हित करने वाले हैं । मेरा मंदबुद्धि पिता उनकी निंदा करता है और मेरा यह शरीर दक्ष ही के वीर्य से उत्पन्न है ॥ ३ ॥
तजिहउँ तुरत देह तेहि हेतू । उर धरि चंद्रमौलि बृषकेतू ॥
अस कहि जोग अगिनि तनु जारा । भयउ सकल मख हाहाकारा ॥ ४ ॥
इसलिए चन्द्रमा को ललाट पर धारण करने वाले वृषकेतु शिवजी को हृदय में धारण करके मैं इस शरीर को तुरंत ही त्याग दूँगी । ऐसा कहकर सतीजी ने योगाग्नि में अपना शरीर भस्म कर डाला । सारी यज्ञशाला में हाहाकार मच गया ॥ ४ ॥
दोहा :
सती मरनु सुनि संभु गन लगे करन मख खीस ।
जग्य बिधंस बिलोकि भृगु रच्छा कीन्हि मुनीस ॥ ६४ ॥ ॥
सती का मरण सुनकर शिवजी के गण यज्ञ विध्वंस करने लगे । यज्ञ विध्वंस होते देखकर मुनीश्वर भृगुजी ने उसकी रक्षा की ॥ ६४ ॥
चौपाई :
समाचार सब संकर पाए । बीरभद्रु करि कोप पठाए ॥
जग्य बिधंस जाइ तिन्ह कीन्हा । सकल सुरन्ह बिधिवत फलु दीन्हा ॥ १ ॥
ये सब समाचार शिवजी को मिले, तब उन्होंने क्रोध करके वीरभद्र को भेजा । उन्होंने वहाँ जाकर यज्ञ विध्वंस कर डाला और सब देवताओं को यथोचित फल (दंड) दिया ॥ १ ॥
भै जगबिदित दच्छ गति सोई । जसि कछु संभु बिमुख कै होई ॥
यह इतिहास सकल जग जानी । ताते मैं संछेप बखानी ॥ २ ॥
दक्ष की जगत्प्रसिद्ध वही गति हुई, जो शिवद्रोही की हुआ करती है । यह इतिहास सारा संसार जानता है, इसलिए मैंने संक्षेप में वर्णन किया ॥ २ ॥
सतीं मरत हरि सन बरु मागा । जनम जनम सिव पद अनुरागा ॥
तेहि कारन हिमगिरि गृह जाई । जनमीं पारबती तनु पाई ॥ ३ ॥
सती ने मरते समय भगवान हरि से यह वर माँगा कि मेरा जन्म-जन्म में शिवजी के चरणों में अनुराग रहे । इसी कारण उन्होंने हिमाचल के घर जाकर पार्वती के शरीर से जन्म लिया ॥ ३ ॥
जब तें उमा सैल गृह जाईं । सकल सिद्धि संपति तहँ छाईं ॥
जहँ तहँ मुनिन्ह सुआश्रम कीन्हे । उचित बास हिम भूधर दीन्हे ॥ ४ ॥
जब से उमाजी हिमाचल के घर जन्मीं, तबसे वहाँ सारी सिद्धियाँ और सम्पत्तियाँ छा गईं । मुनियों ने जहाँ-तहाँ सुंदर आश्रम बना लिए और हिमाचल ने उनको उचित स्थान दिए ॥ ४ ॥