सर्वप्रथम मैंने भगवद्गीता यथारूप इसी रूप में लिखी थी जिस रूप में अब यह प्रस्तुत की जा रही है । दुर्भाग्यवश जब पहली बार इसका प्रकाशन हुआ तो मूल पाण्डुलिपि को छोटा कर दिया गया जिससे अधिकांश श्लोकों की व्याख्याएँ छूट गईं थीं । मेरी अन्य सारी कृतियों में पहले मूल श्लोक दिये गये हैं, फिर उनका अंग्रेजी में लिप्यन्तरण, तब संस्कृत शब्दों का अंग्रेजी में अर्थ, फिर अनुवाद और अन्त में तात्पर्य रहता है । इससे कृति प्रामाणिक तथा विद्वत्तापूर्ण बन जाती है और उसका अर्थ स्वतः स्पष्ट हो जाता है । अतः जब मुझे अपनी मूल पाण्डुलिपि को छोटा करना पड़ा तो मुझे कोई प्रसन्नता नहीं हुई । किन्तु जब भगवद्गीता यथारूप की माँग बढ़ी तब तमाम विद्वानों तथा भक्तों ने मुझसे अनुरोध किया कि मैं इस कृति को इसके मूल रूप में प्रस्तुत करूँ । अतएव ज्ञान की इस महान कृति को मेरी मूल पाण्डुलिपि का रूप प्रदान करने के लिए वर्तमान प्रयास किया गया है जो पूर्ण परम्परागत व्याख्या से युक्त है, जिससे कि कृष्णभावनामृत आन्दोलन की अधिक प्रगतिशील एवं पुष्ट स्थापना की जा सके ।
हमारा कृष्णभावनामृत आन्दोलन मौलिक ऐतिहासिक दृष्टि से प्रामाणिक, सहज तथा दिव्य है क्योंकि यह भगवद्गीता यथारूप पर आधारित है । यह सम्पूर्ण जगत में, विशेषतया नई पीढ़ी के बीच, अति लोकप्रिय हो रहा है । यह प्राचीन पीढ़ी के बीच भी अधिकाधिक सुरुचि प्रदान करने वाला है । प्रौढ़ इसमें इतनी रुचि दिखा रहे हैं कि हमारे शिष्यों के पिता तथा पितामह हमारे संघ के आजीवन सदस्य बनकर हमारा उत्साहवर्धन कर रहे हैं । लॉस एंजिलिस में अनेक माताएँ तथा पिता मेरे पास यह कृतज्ञता व्यक्त करने आते थे कि मैं सारे विश्व में कृष्णभावनामृत आन्दोलन की अगुआई कर रहा हूँ । उनमें से कुछ लोगों ने कहा कि अमरीकी लोग बड़े ही भाग्यशाली हैं कि मैंने अमरीका में कृष्णभावनामृत आन्दोलन का शुभारम्भ किया है । किन्तु इस आन्दोलन के आदि प्रवर्तक तो स्वयं भगवान् कृष्ण हैं, क्योंकि यह आन्दोलन बहुत काल पूर्व प्रवर्तित हो चुका था और परम्परा द्वारा यह मानव समाज में चलता आ रहा है । यदि इसका किंचित्मात्र श्रेय है तो वह मुझे नहीं, अपितु मेरे गुरु कृष्णकृपाश्रीमूर्ति ॐ विष्णुपाद परमहंस परिव्राजकाचार्य १०८ श्री श्रीमद् भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी महाराज प्रभुपाद के कारण है ।
यदि इसका कुछ भी श्रेय मुझे है तो बस इतना ही कि मैंने बिना किसी मिलावट के भगवद्गीता को यथारूप में प्रस्तुत करने का प्रयास किया है । मेरे इस प्रस्तुतीकरण के पूर्व भगवद्गीता के जितने भी अंग्रेजी संस्करण निकले हैं उनमें व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा को व्यक्त करने के प्रयास दिखते हैं । किन्तु भगवद्गीता यथारूप प्रस्तुत करते हुए हमारा प्रयास भगवान् कृष्ण के सन्देश (मिशन) को प्रस्तुत करना रहा है । हमारा कार्य तो कृष्ण की इच्छा को प्रस्तुत करना है, न कि किसी राजनीतिज्ञ, दार्शनिक या विज्ञानी की संसारी इच्छा को, क्योंकि इनमें चाहे कितना ही ज्ञान क्यों न हो, कृष्ण विषयक ज्ञान रंचमात्र भी नहीं पाया जाता । जब कृष्ण कहते हैं - मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु - तो हम तथाकथित पण्डितों की तरह यह नहीं कहते कि कृष्ण तथा उनकी अन्तरात्मा पृथक्-पृथक् हैं । कृष्ण परब्रह्म हैं और कृष्ण के नाम, उनके रूप, उनके गुणों, उनकी लीलाओं आदि में अन्तर नहीं है । जो व्यक्ति परम्परागत कृष्ण भक्त नहीं है उसके लिए कृष्ण के सर्वोच्च ज्ञान को समझ पाना कठिन है । सामान्यतया तथाकथित विद्वान, राजनीतिज्ञ, दार्शनिक तथा स्वामी कृष्ण के सम्यक् ज्ञान के बिना भगवद्गीता पर भाष्य लिखते समय या तो कृष्ण को उसमें से निकाल फेंकना चाहते हैं या उनको मार डालना चाहते हैं । भगवद्गीता का ऐसा अप्रामाणिक भाष्य मायावादी भाष्य कहलाता है और श्री चैतन्य महाप्रभु हमें ऐसे अप्रामाणिक लोगों से सावधान कर गये हैं । वे कहते हैं कि जो भी व्यक्ति भगवद्गीता को मायावादी दृष्टि से समझने का प्रयास करता है वह बहुत बड़ी भूल करेगा । ऐसी भूल का दुष्परिणाम यह होगा कि भगवद्गीता के दिग्भ्रमित जिज्ञासु आध्यात्मिक मार्गदर्शन के मार्ग में मोहग्रस्त हो जायेंगे और वे भगवद्धाम वापस नहीं जा सकेंगे ।
भगवद्गीता यथारूप को प्रस्तुत करने का एकमात्र उद्देश्य बद्ध जिज्ञासुओं को उस उद्देश्य का मार्गदर्शन कराना है, जिसके लिए कृष्ण इस धरा पर ब्रह्मा के एक दिन में एक बार अर्थात् प्रत्येक ८,६०,००,००,००० वर्ष बाद अवतार लेते हैं । भगवद्गीता में इस उद्देश्य का उल्लेख हुआ है और हमें उसे उसी रूप में ग्रहण कर लेना चाहिए अन्यथा भगवद्गीता तथा उसके वक्ता भगवान् कृष्ण को समझने का कोई अर्थ नहीं है । भगवान् कृष्ण ने सबसे पहले लाखों वर्ष पूर्व सूर्यदेव से भगवद्गीता का प्रवचन किया था । हमें इस तथ्य को स्वीकार करना होगा और कृष्ण के प्रमाण की गलत व्याख्या किये बिना भगवद्गीता के ऐतिहासिक महत्त्व को समझना होगा । कृष्ण की इच्छा का सन्दर्भ दिये बिना भगवद्गीता की व्याख्या करना महान अपराध है । इस अपराध से बचने के लिए कृष्ण को भगवान् रूप में समझना होगा जिस तरह से कृष्ण के प्रथम शिष्य अर्जुन ने उन्हें समझा था । भगवद्गीता का ऐसा ज्ञान वास्तव में लाभप्रद है और जीवन-उद्देश्य को पूरा करने में मानव समाज के कल्याण हेतु प्रामाणिक भी होगा ।
मानव समाज में कृष्णभावनामृत आन्दोलन अनिवार्य है क्योंकि यह जीवन की चरम सिद्धि प्रदान करने वाला है । ऐसा क्यों है, इसकी पूरी व्याख्या भगवद्गीता में हुई है । दुर्भाग्यवश संसारी झगडालू व्यक्तियों ने अपनी आसुरी लालसाओं को अग्रसर करने तथा लोगों को जीवन के सिद्धान्तों को ठीक से न समझने देने में भगवद्गीता से लाभ उठाया है । प्रत्येक व्यक्ति को जानना चाहिए कि ईश्वर या कृष्ण कितने महान हैं और जीवों की वास्तविक स्थितियाँ क्या हैं ? प्रत्येक व्यक्ति को यह जान लेना चाहिए कि “जीव” नित्य दास है और जब तक वह कृष्ण की सेवा नहीं करेगा, तब तक वह जन्म-मृत्यु के चक्र में पड़ता रहेगा, यहाँ तक कि मायावादी चिन्तक को भी इसी चक्र में पड़ना होगा । यह ज्ञान एक महान विज्ञान है और हर प्राणी को अपने हित के लिए इस ज्ञान को सुनना चाहिए ।
इस कलियुग में सामान्य जनता कृष्ण की बहिरंगा शक्ति द्वारा मोहित है और उसे यह भ्रान्ति है कि भौतिक सुविधाओं की प्रगति से हर व्यक्ति सुखी बन सकेगा । उसे इसका ज्ञान नहीं है कि भौतिक या बहिरंगा प्रकृति अत्यन्त प्रबल है, क्योंकि हर प्राणी प्रकृति के कठोर नियमों द्वारा बुरी तरह से जकड़ा हुआ है । सौभाग्यवश जीव भगवान् का अंश-रूप है अतएव उसका सहज कार्य है भगवान् की सेवा करना । मोहवश मनुष्य विभिन्न प्रकारों से अपनी इन्द्रियतृप्ति करके सुखी बनना चाहता है, किन्तु इससे वह कभी भी सुखी नहीं हो सकता । अपनी भौतिक इन्द्रियों को तुष्ट करने के बजाय उसे भगवान् की इन्द्रियों को तुष्ट करने का प्रयास करना चाहिए । यही जीवन की सर्वोच्च सिद्धि है । भगवान् यही चाहते हैं और इसी की अपेक्षा रखते हैं । मनुष्य को भगवद्गीता के इस केन्द्रबिन्दु को समझना होगा । हमारा कृष्णभावनामृत आन्दोलन पूरे विश्व को इसी केन्द्रबिन्दु की शिक्षा देता है । जो भी व्यक्ति भगवद्गीता का अध्ययन करके लाभान्वित होना चाहता है वह हमारे कृष्णभावनामृत आन्दोलन से इस सम्बन्ध में सहायता प्राप्त कर सकता है । अतः हमें आशा है कि हम भगवद्गीता यथारूप को जिस रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं, उससे मानव लाभ उठायेंगे और यदि एक भी व्यक्ति भगवद्भक्त बन सके, तो हम अपने प्रयास को सफल मानेंगे ।
ए. सी. भक्तिवेदान्त स्वामी
१२ मई १९७१
सिडनी, आस्ट्रेलिया