मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोनयः ।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ॥ ३२ ॥

शब्दार्थ

माम् – मेरी; हि – निश्चय ही; पार्थ – हे पृथापुत्र; व्यपाश्रित्य – शरण ग्रहण करके; ये – जो; अपि – भी; स्युः – हैं; पाप-योनयः – निम्नकुल में उत्पन्न; स्त्रियः – स्त्रियाँ; वैश्याः – वणिक लोग; तथा – भी; शूद्राः – निम्न श्रेणी के व्यक्ति; ते अपि – वे भी; यान्ति – जाते हैं; पराम् – परम; गतिम् – गन्तव्य को ।

भावार्थ

हे पार्थ! जो लोग मेरी शरण ग्रहण करते हैं, वे भले ही निम्नजन्मा, स्त्री, वैश्य (व्यापारी) तथा शूद्र (श्रमिक) क्यों न हों, वे परमधाम को प्राप्त करते हैं ।

तात्पर्य

यहाँ पर भगवान् ने स्पष्ट कहा है कि भक्ति में उच्च तथा निम्न जाति के लोगों का भेद नहीं होता । भौतिक जीवन में ऐसा विभाजन होता है, किन्तु भगवान् की दिव्य भक्ति में लगे व्यक्ति पर यह लागू नहीं होता । सभी परमधाम के अधिकारी हैं । श्रीमद्भागवत में (२.४.१८) कथन है कि अधम योनि चाण्डाल भी शुद्ध भक्त के संसर्ग से शुद्ध हो जाते हैं । अतः भक्ति तथा शुद्ध भक्त द्वारा पथप्रदर्शन इतने प्रबल हैं कि वहाँ ऊँचनीच का भेद नहीं रह जाता और कोई भी इसे ग्रहण कर सकता है । शुद्ध भक्त की शरण ग्रहण करके सामान्य से सामान्य व्यक्ति शुद्ध हो सकता है । प्रकृति के विभिन्न गुणों के अनुसार मनुष्यों को सात्त्विक (ब्राह्मण), रजोगुणी (क्षत्रिय) तथा तामसी (वैश्य तथा शूद्र) कहा जाता है । इनसे भी निम्न पुरुष चाण्डाल कहलाते हैं और वे पापी कुलों में जन्म लेते हैं । सामान्य रूप से उच्चकुल वाले इन निम्नकुल में जन्म लेने वालों की संगति नहीं करते । किन्तु भक्तियोग इतना प्रबल होता है कि भगवद्भक्त समस्त निम्नकुल वाले व्यक्तियों को जीवन की परम सिद्धि प्राप्त करा सकते हैं । यह तभी सम्भव है जब कोई कृष्ण की शरण में जाये । जैसा कि व्यपाश्रित्य शब्द से सूचित है, मनुष्य को पूर्णतया कृष्ण की शरण ग्रहण करनी चाहिए । तब वह बड़े से बड़े ज्ञानी तथा योगी से भी महान बन सकता है ।