पिताहमस्य जगतो माता धाता पितामहः ।
वेद्यं पवित्रम् ॐकार ऋक् साम यजुरेव च ॥ १७ ॥

शब्दार्थ

पिता – पिता; अहम् – मैं; अस्य – इस; जगतः – ब्रह्माण्ड का; माता – माता; धाता – आश्रयदाता; पितामहः – बाबा; वेद्यम् – जानने योग्य; पवित्रम् – शुद्ध करने वाला; ॐकारः – ॐ अक्षर; ऋक् – ऋग्वेद; साम – सामवेद; यजुः – यजुर्वेद; एव – निश्चय ही; – तथा ।

भावार्थ

मैं इस ब्रह्माण्ड का पिता, माता, आश्रय तथा पितामह हूँ । मैं ज्ञेय (जानने योग्य), शुद्धिकर्ता तथा ओंकार हूँ । मैं ऋग्वेद, सामवेद तथा यजुर्वेद भी हूँ ।

तात्पर्य

सारे चराचर विराट जगत की अभिव्यक्ति कृष्ण की शक्ति के विभिन्न कार्यकलापों से होती है । इस भौतिक जगत् में हम विभिन्न जीवों के साथ तरह-तरह के सम्बन्ध स्थापित करते हैं, जो कृष्ण की शक्ति के अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं हैं । प्रकृति की सृष्टि में उनमें से कुछ हमारे माता, पिता के रूप में उत्पन्न होते हैं किन्तु वे कृष्ण के अंश ही हैं । इस दृष्टि से ये जीव जो हमारे माता, पिता आदि प्रतीत होते हैं वे कृष्ण के अतिरिक्त कुछ नहीं हैं । इस श्लोक में आए धाता शब्द का अर्थ स्रष्टा है । न केवल हमारे माता पिता कृष्ण के अंश रूप हैं, अपितु इनके स्रष्टा दादी तथा दादा कृष्ण हैं । वस्तुतः कोई भी जीव कृष्ण का अंश होने के कारण कृष्ण है । अतः सारे वेदों के लक्ष्य कृष्ण ही हैं । हम वेदों से जो भी जानना चाहते हैं वह कृष्ण को जानने की दिशा में होता है । जिस विषय से हमारी स्वाभाविक स्थिति शुद्ध होती है, वह कृष्ण है । इसी प्रकार जो जीव वैदिक नियमों को जानने के लिए जिज्ञासु रहता है, वह भी कृष्ण का अंश, अतः कृष्ण भी है । समस्त वैदिक मन्त्रों में ॐ शब्द, जिसे प्रणव कहा जाता है, एक दिव्य ध्वनि-कम्पन है और यह कृष्ण भी है । चूँकि चारों वेदों - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद में प्रणव या ओंकार प्रधान है, अतः इसे कृष्ण समझना चाहिए ।