सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रताः ।
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥ १४ ॥

शब्दार्थ

सततम् – निरन्तर; कीर्तयन्तः – कीर्तन करते हुए; माम् – मेरे विषयमें; यतन्तः – प्रयास करते हुए; – भी; दृढ़-व्रताः – संकल्पपूर्वक; नमस्यन्तः – नमस्कार करते हुए; – तथा; माम् – मुझको; भक्त्या – भक्ति में; नित्य-युक्ताः – सदैव रत रहकर; उपासते – पूजा करते हैं ।

भावार्थ

ये महात्मा मेरी महिमा का नित्य कीर्तन करते हुए दृढसंकल्प के साथ प्रयास करते हुए, मुझे नमस्कार करते हुए, भक्तिभाव से निरन्तर मेरी पूजा करते हैं ।

तात्पर्य

सामान्य पुरुष को रबर की मुहर लगाकर महात्मा नहीं बनाया जाता । यहाँ पर उसके लक्षणों का वर्णन किया गया है - महात्मा सदैव भगवान् कृष्ण के गुणों का कीर्तन करता रहता है, उसके पास कोई दूसरा कार्य नहीं रहता । वह सदैव कृष्ण के गुण-गान में व्यस्त रहता है । दूसरे शब्दों में, वह निर्विशेषवादी नहीं होता । जब गुण-गान का प्रश्न उठे तो मनुष्य को चाहिए कि वह भगवान् के पवित्र नाम, उनके नित्य रूप, उनके दिव्य गुणों तथा उनकी असामान्य लीलाओं की प्रशंसा करते हुए परमेश्वर को महिमान्वित करे । उसे इन सारी वस्तुओं को महिमान्वित करना होता है, अतः महात्मा भगवान् के प्रति आसक्त रहता है ।

जो व्यक्ति परमेश्वर के निराकार रूप, ब्रह्मज्योति, के प्रति आसक्त होता है उसे भगवद्गीता में महात्मा नहीं कहा गया । उसे अगले श्लोक में अन्य प्रकार से वर्णित किया गया है । महात्मा सदैव भक्ति के विविध कार्यों में, यथा विष्णु के श्रवण-कीर्तन में, व्यस्त रहता है, जैसा कि श्रीमद्भागवत में उल्लेख है । यही भक्ति श्रवणं कीर्तनं विष्णोः तथा स्मरणं है । ऐसा महात्मा अन्ततः भगवान् के पाँच दिव्य रसों में से किसी एक रस में उनका सान्निध्य प्राप्त करने के लिए दृढव्रत होता है । इसे प्राप्त करने के लिए वह मनसा वाचा कर्मणा अपने सारे कार्यकलाप भगवान् कृष्ण की सेवा में लगाता है । यही पूर्ण कृष्णभावनामृत कहलाता है ।

भक्ति में कुछ कार्य हैं जिन्हें दृढव्रत कहा जाता है, यथा प्रत्येक एकादशी को तथा भगवान् के आविर्भाव दिवस (जन्माष्टमी) पर उपवास करना । ये सारे विधि-विधान महान आचार्यों द्वारा उन लोगों के लिए बनाये गये हैं जो दिव्यलोक में भगवान् का सान्निध्य प्राप्त करने के इच्छुक हैं । महात्माजन इन विधि-विधानों का दृढ़ता से पालन करते हैं । फलतः उनके लिए वाञ्छित फल की प्राप्ति निश्चित रहती है ।

जैसा कि इसी अध्याय के द्वितीय श्लोक में कहा गया है, यह भक्ति न केवल सरल है अपितु, इसे सुखपूर्वक किया जा सकता है । इसके लिए कठिन तपस्या करने की आवश्यकता नहीं पड़ती । मनुष्य सक्षम गुरु के निर्देशन में इस जीवन को गृहस्थ, संन्यासी या ब्रह्मचारी रहते हुए भक्ति में बिता सकता है । वह संसार में किसी भी अवस्था में कहीं भी भगवान् की भक्ति करके वास्तव में महात्मा बन सकता है ।