सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च ।
मूध्न्र्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम् ॥ १२ ॥

शब्दार्थ

सर्व-द्वाराणि – शरीर के समस्त द्वारों को; संयम्य – वश में करके; मनः – मन को; हृदि – हृदय में; निरुध्य – बन्द कर; – भी; आधाय – स्थिर करके; आत्मनः – अपने; प्राणम् – प्राणावायु को; आस्थितः – स्थित; योग-धारणाम् – योग की स्थिति ।

भावार्थ

समस्त ऐन्द्रिय क्रियाओं से विरक्ति को योग की स्थिति (योगधारणा) कहा जाता है । इन्द्रियों के समस्त द्वारों को बन्द करके तथा मन को हृदय में और प्राणवायु को सिर पर केन्द्रित करके मनुष्य अपने को योग में स्थापित करता है ।

तात्पर्य

इस श्लोक में बताई गई विधि से योगाभ्यास के लिए सबसे पहले इन्द्रियभोग के सारे द्वार बन्द करने होते हैं । यह प्रत्याहार अथवा इन्द्रियविषयों से इन्द्रियों को हटाना कहलाता है । इसमें ज्ञानेन्द्रियों - नेत्र, कान, नाक, जीभ तथा स्पर्श को पूर्णतया वश में करके उन्हें इन्द्रियतृप्ति में लिप्त होने नहीं दिया जाता । इस प्रकार मन हृदय में स्थित परमात्मा पर केन्द्रित होता है और प्राणवायु को सिर के ऊपर तक चढ़ाया जाता है । इसका विस्तृत वर्णन छठे अध्याय में हो चुका है । किन्तु जैसा कि पहले कहा जा चुका है अब यह विधि व्यावहारिक नहीं है । सबसे उत्तम विधि तो कृष्णभावनामृत है । यदि कोई भक्ति में अपने मन को कृष्ण में स्थिर करने में समर्थ होता है, तो उसके लिए अविचलित दिव्य समाधि में बने रहना सुगम हो जाता है ।