साधिभूताधिदैवं मां साधियज्ञं च ये विदुः ।
प्रयाणकालेऽपि च मां ते विदुर्युक्तचेतसः ॥ ३० ॥

शब्दार्थ

स-अधिभूत – तथा भातिक जगत् चलाने वाले सिद्धान्त; अधिदैवम् – समस्त देवताओं को नियन्त्रित करने वाले; माम् – मुझको; स-अधियज्ञम् – तथा समस्त यज्ञों को नियन्त्रित करने वाले; – भी; ये – जो; विदुः – जानते हैं; प्रयाण – मृत्यु के; काले – समय में; अपि – भी; – तथा; माम् – मुझको; ते – वे; विदुः – जानते हैं; युक्त-चेतसः – जिनके मन मुझमें लगे हैं ।

भावार्थ

जो मुझ परमेश्वर को मेरी पूर्ण चेतना में रहकर मुझे जगत् का, देवताओं का तथा समस्त यज्ञविधियों का नियामक जानते हैं, वे अपनी मृत्यु के समय भी मुझ भगवान् को जान और समझ सकते हैं ।

तात्पर्य

कृष्णभावनामृत में कर्म करने वाले मनुष्य कभी भी भगवान् को पूर्णतया समझने के पथ से विचलित नहीं होते । कृष्णभावनामृत के दिव्य सान्निध्य से मनुष्य यह समझ सकता है कि भगवान् किस तरह भौतिक जगत् तथा देवताओं तक के नियामक हैं । धीरे-धीरे ऐसी दिव्य संगति से मनुष्य का भगवान् में विश्वास बढ़ता है, अतः मृत्यु के समय ऐसा कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कृष्ण को कभी भुला नहीं पाता । अतएव वह सहज ही भगवद्धाम गोलोक वृन्दावन को प्राप्त होता है ।

यह सातवाँ अध्याय विशेष रूप से बताता है कि कोई किस प्रकार से पूर्णतया कृष्णभावनाभावित हो सकता है । कृष्णभावना का शुभारम्भ ऐसे व्यक्तियों के सान्निध्य से होता है जो कृष्णभावनाभावित होते हैं । ऐसा सान्निध्य आध्यात्मिक होता है और इससे मनुष्य प्रत्यक्ष भगवान् के संसर्ग में आता है और भगवत्कृपा से वह कृष्ण को भगवान् समझ सकता है । साथ ही वह जीव के वास्तविक स्वरूप को समझ सकता है और यह समझ सकता है कि किस प्रकार जीव कृष्ण को भुलाकर भौतिक कार्यों में उलझ जाता है । सत्संगति में रहने से कृष्णभावना के क्रमिक विकास से जीव यह समझ सकता है कि किस प्रकार कृष्ण को भुलाने से वह प्रकृति के नियमों द्वारा बद्ध हुआ है । वह यह भी समझ सकता है कि यह मनुष्यजीवन कृष्णभावनामृत को पuनः प्राप्त करने के लिए मिला है, अतः इसका सदुपयोग परमेश्वर की अहैतुकी कृपा प्राप्त करने के लिए करना चाहिए ।

इस अध्याय में जिन अनेक विषयों की विवेचना की गई है वे हैं - दुख मे पड़ा हुआ मनुष्य, जिज्ञासु मानव, अभावग्रस्त मानव, ब्रह्म ज्ञान, परमात्मा ज्ञान, जन्म, मृत्यु तथा रोग से मुक्ति एवं परमेश्वर की पूजा । किन्तु जो व्यक्ति वास्तव में कृष्णभावनामृत को प्राप्त है, वह विभिन्न विधियों की परवाह नहीं करता । वह सीधे कृष्णभावनामृत के कार्यों में प्रवृत्त होता है और उसी से भगवान् कृष्ण के नित्य दास के रूप में अपनी स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त करता है । ऐसी अवस्था में वह शुद्धभक्ति में परमेश्वर के श्रवण तथा गुणगान में आनन्द पाता है । उसे पूर्ण विश्वास रहता है कि ऐसा करने से उसके सारे उद्देश्यों की पूर्ति होगी । ऐसी दृढ़ श्रद्धा दृढव्रत कहलाती है और यह भक्तियोग या दिव्य प्रेमाभक्ति की शुरुआत होती है । समस्त शास्त्रों का भी यही मत है । भगवद्गीता का यह सातवाँ अध्याय इसी निश्चय का सारांश है ।

इस प्रकार श्रीमद्भगवद्गीता के सातवें अध्याय “भगवद्ज्ञान” का भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुआ ।