ये चैव सात्त्विका भावा राजसास्तामसाश्च ये ।
मत्त एवेति तान्विद्धि न त्वहं तेषु ते मयि ॥ १२ ॥
शब्दार्थ
ये – जो; च – तथा; एव – निश्चय ही; सात्त्विकाः – सतोगुणी; भावाः – भाव; राजसाः – रजोगुणी; तामसाः – तमोगुणी; च – भी; ये – जो; मत्तः – मुझसे; एव – निश्चय ही; इति – इस प्रकार; तान् – उनको; विद्धि – जानो; न – नहीं; तु – लेकिन; अहम् – मैं; तेषु – उनमें; ते – वे; मयि – मुझमें ।
भावार्थ
तुम जान लो कि मेरी शक्ति द्वारा सारे गुण प्रकट होते हैं, चाहे वे सतोगुण हों, रजोगुण हों या तमोगुण हों । एक प्रकार से मैं सब कुछ हूँ, किन्तु हूँ स्वतन्त्र । मैं प्रकृति के गुणों के अधीन नहीं हूँ, अपितु वे मेरे अधीन हैं ।
तात्पर्य
संसार के सारे भौतिक कार्यकलाप प्रकृति के गुणों के अधीन सम्पन्न होते हैं । यद्यपि प्रकृति के गुण परमेश्वर कृष्ण से उद्भूत हैं, किन्तु भगवान् उनके अधीन नहीं होते । उदाहरणार्थ, राज्य के नियमानुसार कोई दण्डित हो सकता है, किन्तु नियम बनाने वाला राजा उस नियम के अधीन नहीं होता । इसी तरह प्रकृति के सभी गुण - सतो, रजो तथा तमोगुण - भगवान् कृष्ण से उद्भूत हैं, किन्तु कृष्ण प्रकृति के अधीन नहीं हैं । इसीलिए वे निर्गुण हैं, जिसका तात्पर्य है कि सभी गुण उनसे उद्भूत हैं, किन्तु ये उन्हें प्रभावित नहीं करते । यह भगवान् का विशेष लक्षण है ।