ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रियः ।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्ट्राश्मकाञ्चनः ॥ ८ ॥
शब्दार्थ
ज्ञान – अर्जित ज्ञान; विज्ञान – अनुभूत ज्ञान से; तृप्त – सन्तुष्ट; आत्मा – जीव; कूट-स्थः – आध्यात्मिक रूप से स्थित; विजित-इन्द्रियः – इन्द्रियों के वश में करके; युक्तः – आत्म-साक्षात्कार के लिए सक्षम; इति – इस प्रकार; उच्यते – कहा जाता है; योगी – योग का साधक; सम – समदर्शी; लोष्ट्र – कंकड़; अश्म – पत्थर; काञ्चनः – स्वर्ण ।
भावार्थ
वह व्यक्ति आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त तथा योगी कहलाता है जो अपने अर्जित ज्ञान तथा अनुभूति से पूर्णतया सन्तुष्ट रहता है । ऐसा व्यक्ति अध्यात्म को प्राप्त तथा जितेन्द्रिय कहलाता है । वह सभी वस्तुओं को - चाहे वे कंकड़ हों, पत्थर हों या कि सोना - एकसमान देखता है ।
तात्पर्य
परम सत्य की अनुभूति के बिना कोरा ज्ञान व्यर्थ होता है । भक्तिरसामृत सिन्धु में (१.२.२३४) कहा गया है –
अतः श्रीकृष्णनामादि न भवेद् ग्राह्यमिन्द्रियैः ।
सेवोन्मुखे हि जिह्वादौ स्वयमेव स्फुरत्यदः ॥
“कोई भी व्यक्ति अपनी दूषित इन्द्रियों के द्वारा श्रीकृष्ण के नाम, रूप, गुण तथा उनकी लीलाओं की दिव्य प्रकृति को नहीं समझ सकता । भगवान् की दिव्य सेवा से पूरित होने पर ही कोई उनके दिव्य नाम, रूप, गुण तथा लीलाओं को समझ सकता है ।”
यह भगवद्गीता कृष्णभावनामृत का विज्ञान है । मात्र संसारी विद्वत्ता से कोई कृष्णभावनाभावित नहीं हो सकता । उसे विशुद्ध चेतना वाले व्यक्ति का सान्निध्य प्राप्त होने का सौभाग्य मिलना चाहिए । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को भगवत्कृपा से ज्ञान की अनुभूति होती है, क्योंकि वह विशुद्ध भक्ति से तुष्ट रहता है । अनुभूत ज्ञान से वह पूर्ण बनता है । आध्यात्मिक ज्ञान से मनुष्य अपने संकल्पों में दृढ़ रह सकता है, किन्तु मात्र शैक्षिक ज्ञान से वह बाह्य विरोधाभासों द्वारा मोहित और भ्रमित होता रहता है । केवल अनुभवी आत्मा ही आत्मसंयमी होता है, क्योंकि वह कृष्ण की शरण में जा चुका होता है । वह दिव्य होता है क्योंकि उसे संसारी विद्वत्ता से कुछ लेना-देना नहीं रहता । उसके लिए संसारी विद्वत्ता तथा मनोधर्म, जो अन्यों के लिए स्वर्ण के समान उत्तम होते हैं, कंकड़ों या पत्थरों से अधिक नहीं होते ।