पूर्वाभ्यासेन तेनैव ह्रियते ह्यवशोऽपि सः ।
जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्तते ॥ ४४ ॥
शब्दार्थ
पूर्व – पिछला; अभ्यासेन – अभ्यास से; तेन – उससे; एव – ही; ह्रियते – आकर्षित होता है; हि – निश्चय ही; अवशः – स्वतः; अपि – भी; सः – वह; जिज्ञासुः – उत्सुक; अपि – भी; योगस्य – योग के विषय में; शब्द-ब्रह्म – शास्त्रों के अनुष्ठान; अतिवर्तते – परे चला जाता है, उल्लंघन करता है ।
भावार्थ
अपने पूर्वजन्म की दैवी चेतना से वह न चाहते हुए भी स्वतः योग के नियमों की ओर आकर्षित होता है । ऐसा जिज्ञासु योगी शास्त्रों के अनुष्ठानों से परे स्थित होता है ।
तात्पर्य
उन्नत योगीजन शास्त्रों के अनुष्ठानों के प्रति अधिक आकृष्ट नहीं होते, किन्तु योग-नियमों के प्रति स्वतः आकृष्ट होते हैं, जिनके द्वारा वे कृष्णभावनामृत में आरूढ हो सकते हैं । श्रीमद्भागवत में (३.३३.७) उन्नत योगियों द्वारा वैदिक अनुष्ठानों के प्रति अवहेलना की व्याख्या इस प्रकार की गई है –
अहो बत श्वपचोऽतो गरीयान् यज्जिह्वाग्रे वर्तते नाम तुभ्यम् ।
तेपुस्तपस्ते जुहुवुः सस्नुरार्या ब्रह्मानूचुर्नाम गृणन्ति ये ते ॥
“हे भगवन्! जो लोग आपके पवित्र नाम का जप करते हैं, वे चाण्डालों के परिवारों में जन्म लेकर भी आध्यात्मिक जीवन में अत्यधिक प्रगत होते हैं । ऐसे जपकर्ता निस्सन्देह सभी प्रकार के तप और यज्ञ कर चुके होते हैं, तीर्थस्थानों में स्नान कर चुके होते हैं और समस्त शास्त्रों का अध्ययन कर चुके होते हैं ।”
इसका सुप्रसिद्ध उदाहरण भगवान् चैतन्य ने प्रस्तुत किया, जिन्होंने ठाकुर हरिदास को अपने परमप्रिय शिष्य के रूप में स्वीकार किया । यद्यपि हरिदास का जन्म एक मुसलमान परिवार में हुआ था, किन्तु भगवान् चैतन्य ने उन्हें नामाचार्य की पदवी प्रदान की क्योंकि वे प्रतिदिन नियमपूर्वक तीन लाख भगवान् के पवित्र नामों- हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे । हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे ॥ - का जप करते थे । और चूँकि वे निरन्तर भगवान् के पवित्र नाम का जप करते रहते थे, अतः यह समझा जाता है कि पूर्वजन्म में उन्होंने शब्दब्रह्म नामक वेदवर्णित कर्मकाण्डों को पूरा किया होगा । अतएव जब तक कोई पवित्र नहीं होता तब तक कृष्णभावनामृत के नियमों को ग्रहण नहीं करता या भगवान् के पवित्र नाम हरे कृष्ण का जप नहीं कर सकता ।