असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः ।
वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः ॥ ३६ ॥
शब्दार्थ
असंयत – उच्छृंखल; आत्मना – मन के द्वारा; योगः – आत्म-साक्षात्कार; दुष्प्रापः – प्राप्त करना कठिन; इति – इस प्रकार; मे – मेरा; मतिः – मत; वश्य – वशीभूत; आत्मना – मन से; तु – लेकिन; यतता – प्रयत्न करते हुए; शक्यः – व्यावहारिक; अवाप्तुम् – प्राप्त करना; उपायतः – उपयुक्त साधनों द्वारा ।
भावार्थ
जिसका मन उच्छृखल है, उसके लिए आत्म-साक्षात्कार कठिन कार्य होता है, किन्तु जिसका मन संयमित है और जो समुचित उपाय करता है उसकी सफलता ध्रुव है । ऐसा मेरा मत है ।
तात्पर्य
भगवान् घोषणा करते हैं कि जो व्यक्ति अपने मन को भौतिक व्यापारों से विलग करने का समुचित उपचार नहीं करता, उसे आत्म-साक्षात्कार में शायद ही सफलता प्राप्त हो सके । भौतिक भोग में मन लगाकर योग का अभ्यास करना मानो अग्नि में जल डाल कर उसे प्रज्वलित करने का प्रयास करना हो । मन का निग्रह किये बिना योगाभ्यास समय का अपव्यय है । योग का ऐसा प्रदर्शन भले ही भौतिक दृष्टि से लाभप्रद हो, किन्तु जहाँ तक आत्म-साक्षात्कार का प्रश्न है यह सब व्यर्थ है । अतः मनुष्य को चाहिए कि भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरन्तर मन को लगाकर उसे वश में करे । कृष्णभावनामृत में प्रवृत्त हुए बिना मन को स्थिर कर पाना असम्भव है । कृष्णभावनाभावित व्यक्ति बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के ही योगाभ्यास का फल सरलता से प्राप्त कर लेता है, किन्तु योगाभ्यास करने वाले को कृष्णभावनाभावित हुए बिना सफलता नहीं मिल पाती ।