आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्यतस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥ ३ ॥
शब्दार्थ
आरुरुक्षोः – जिसने अभी योग प्रारम्भ किया है; मुनेः – मुनि की; योगम् – अष्टांगयोग पद्धति; कर्म – कर्म; कारणम् – साधन; उच्यते – कहलाता है; योग – अष्टांगयोग; आरुढस्य – प्राप्त होने वाले का; तस्य – उसका; एव – निश्चय हि; शमः – सम्पूर्ण भौतिक कार्यकलापों का त्याग; कारणाम् – कारण; उच्यते – कहा जाता है ।
भावार्थ
अष्टांगयोग के नवसाधक के लिए कर्म साधन कहलाता है और योगसिद्ध पुरुष के लिए समस्त भौतिक कार्यकलापों का परित्याग ही साधन कहा जाता है ।
तात्पर्य
परमेश्वर से युक्त होने की विधि योग कहलाती है । इसकी तुलना उस सीढ़ी से की जा सकती है जिससे सर्वोच्च आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त की जाती है । यह सीढ़ी जीव की अधम अवस्था से प्रारम्भ होकर आध्यात्मिक जीवन के पूर्ण आत्म-साक्षात्कार तक जाती है । विभिन्न चढ़ावों के अनुसार इस सीढ़ी के विभिन्न भाग भिन्न-भिन्न नामों से जाने जाते हैं । किन्तु कुल मिलाकर यह पूरी सीढ़ी योग कहलाती है और इसे तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है - ज्ञानयोग, ध्यानयोग तथा भक्तियोग । सीढ़ी के प्रारम्भिक भाग को योगारुरुक्षु अवस्था और अन्तिम भाग को योगारूढ कहा जाता है ।
जहाँ तक अष्टांगयोग का सम्बन्ध है, विभिन्न यम-नियमों तथा आसनों (जो प्रायः शारीरिक मुद्राएँ ही हैं) के द्वारा ध्यान में प्रविष्ट होने के लिए आरम्भिक प्रयासों को सकाम कर्म माना जाता है । ऐसे कर्मों से पूर्ण मानसिक सन्तुलन प्राप्त होता है जिससे इन्द्रियाँ वश में होती हैं । जब मनुष्य पूर्ण ध्यान में सिद्धहस्त हो जाता है तो विचलित करने वाले समस्त मानसिक कार्य बन्द हुए माने जाते हैं ।
किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति प्रारम्भ से ही ध्यानावस्थित रहता है क्योंकि वह निरन्तर कृष्ण का चिन्तन करता है । इस प्रकार कृष्ण की सेवा में सतत व्यस्त रहने के कारण उसके सारे भौतिक कार्यकलाप बन्द हुए माने जाते हैं ।