शनैः शनैरुपरमेद्बुद्ध्या धृतिगृहीतया ।
आत्मसंस्थं मनः कृत्वा न किञ्चिदपि चिन्तयेत् ॥ २५ ॥
शब्दार्थ
शनैः – धीरे-धीरे; शनैः – एकएक करके, क्रम से; उपरमेत् – निवृत्त रहे; बुद्धया – बुद्धि से; धृति-गृहीतया – विश्वासपूर्वक; आत्म-संस्थम् – समाधि में स्थित; मनः – मन; कृत्वा – करके; न – नहीं; किञ्चित् – अन्य कुछ; अपि – भी; चिन्तयेत् – सोचे ।
भावार्थ
धीरे-धीरे, क्रमशः पूर्ण विश्वासपूर्वक बुद्धि के द्वारा समाधि में स्थित होना चाहिए और इस प्रकार मन को आत्मा में ही स्थित करना चाहिए तथा अन्य कुछ भी नहीं सोचना चाहिए ।
तात्पर्य
समुचित विश्वास तथा बुद्धि के द्वारा मनुष्य को धीरे-धीरे सारे इन्द्रियकर्म करने बन्द कर देना चाहिए । यह प्रत्याहार कहलाता है । मन को विश्वास, ध्यान तथा इन्द्रिय-निवृत्ति द्वारा वश में करते हुए समाधि में स्थिर करना चाहिए । उस समय देहात्मबुद्धि में अनुरक्त होने की कोई सम्भावना नहीं रह जाती । दूसरे शब्दों में, जब तक इस शरीर का अस्तित्व है तब तक मनुष्य पदार्थ में लगा रहता है, किन्तु उसे इन्द्रियतृप्ति के विषय में नहीं सोचना चाहिए । उसे परमात्मा के आनन्द के अतिरिक्त किसी अन्य आनन्द का चिन्तन नहीं करना चाहिए । कृष्णभावनामृत का अभ्यास करने से यह अवस्था सहज ही प्राप्त की जा सकती है ।