युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु ।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ॥ १७ ॥
शब्दार्थ
युक्त – नियमित; आहार – भोजन; विहारस्य – आमोद-प्रमोद का; युक्त – नियमित; चेष्टस्य – जीवन निर्वाह के लिए कर्म करने वाले का; कर्मसु – कर्म करने में; युक्त – नियमित; स्वप्न-अवबोधस्य – नींद तथा जागरण का; योगः – योगाभ्यास; भवति – होता है; दुःख-हा – कष्टों को नष्ट करने वाला ।
भावार्थ
जो खाने, सोने, आमोद-प्रमोद तथा काम करने की आदतों में नियमित रहता है, वह योगाभ्यास द्वारा समस्त भौतिक क्लेशों को नष्ट कर सकता है ।
तात्पर्य
खाने, सोने, रक्षा करने तथा मैथुन करने में जो शरीर की आवश्यकताएँ हैं - अति करने से योगाभ्यास की प्रगति रुक जाती है । जहाँ तक खाने का प्रश्न है, इसे तो प्रसादम् या पवित्रीकृत भोजन के रूप में नियमित बनाया जा सकता है । भगवद्गीता (९.२६) के अनुसार भगवान् कृष्ण को शाक, फूल, फल, अन्न, दुग्ध आदि भेंट किये जाते हैं । इस प्रकार एक कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को ऐसा भोजन न करने का स्वतः प्रशिक्षण प्राप्त रहता है, जो मनुष्य के खाने योग्य नहीं होता या कि सतोगुणी नहीं होता । जहाँ तक सोने का प्रश्न है, कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कृष्णभावनामृत में कर्म करने में निरन्तर सतर्क रहता है, अतः निद्रा में वह व्यर्थ समय नहीं गँवाता । अव्यर्थ-कालत्वम् - कृष्णभावनाभावित व्यक्ति अपना एक मिनट का समय भी भगवान् की सेवा के बिना नहीं बिताना चाहता । अतः वह कम से कम सोता है । इसके आदर्श श्रील रूप गोस्वामी हैं, जो कृष्ण की सेवा में निरन्तर लगे रहते थे और दिनभर में दो घंटे से अधिक नहीं सोते थे, और कभी-कभी तो उतना भी नहीं सोते थे । ठाकुर हरिदास तो अपनी माला में तीन लाख नामों का जप किये बिना न तो प्रसाद ग्रहण करते थे और न सोते ही थे । जहाँ तक कार्य का प्रश्न है, कृष्णभावनाभावित व्यक्ति ऐसा कोई भी कार्य नहीं करता जो कृष्ण से सम्बन्धित न हो । इस प्रकार उसका कार्य सदैव नियमित रहता है और इन्द्रियतृप्ति से अदूषित । चूँकि कृष्णभावनाभावित व्यक्ति के लिए इन्द्रियतृप्ति का प्रश्न ही नहीं उठता, अतः उसे तनिक भी भौतिक अवकाश नहीं मिलता । चूँकि वह अपने कार्य, वचन, निद्रा, जागृति तथा अन्य सारे शारीरिक कार्यों में नियमित रहता है, अतः उसे कोई भौतिक दुःख नहीं सताता ।