सांख्ययोगौ पृथग्बालाः प्रवदन्ति न पण्डिताः ।
एकमप्यास्थितः सम्यगुभयोर्विन्दते फलम् ॥ ४ ॥

शब्दार्थ

सांख्य – भौतिक जगत् का विश्लेषात्मक अध्ययन; योगौ – भक्तिपूर्ण कर्म, कर्मयोग; पृथक् – भिन्न; बालाः – अल्पज्ञ; प्रवदन्ति – कहते हैं; – कभी नहीं; पण्डिताः – विद्वान जन; एकम् – एक में; अपि – भी; आस्थितः – स्थित; सम्यक् – पूर्णतया; उभयोः – दोनों को; विन्दते – भोग करता है; फलम् – फल ।

भावार्थ

अज्ञानी ही भक्ति (कर्मयोग) को भौतिक जगत् के विश्लेषणात्मक अध्ययन (सांख्य) से भिन्न कहते हैं । जो वस्तुतः ज्ञानी हैं वे कहते हैं कि जो इनमें से किसी एक मार्ग का भलीभाँति अनुसरण करता है, वह दोनों के फल प्राप्त कर लेता है ।

तात्पर्य

भौतिक जगत् के विश्लेषणात्मक अध्ययन (सांख्य) का उद्देश्य आत्मा को प्राप्त करना है । भौतिक जगत् की आत्मा विष्णु या परमात्मा हैं । भगवान् की भक्ति का अर्थ परमात्मा की सेवा है । एक विधि से वृक्ष की जड़ खोजी जाती है और दूसरी विधि से उसको सींचा जाता है । सांख्यदर्शन का वास्तविक छात्र जगत् के मूल अर्थात् विष्णु को ढूँढता है और फिर पूर्णज्ञान समेत अपने को भगवान् की सेवा में लगा देता है । अतः मूलतः इन दोनों में कोई भेद नहीं है क्योंकि दोनों का उद्देश्य विष्णु की प्राप्ति है । जो लोग चरम उद्देश्य को नहीं जानते वे ही कहते हैं कि सांख्य और कर्मयोग एक नहीं हैं, किन्तु जो विद्वान् है वह जानता है कि इन दोनों भिन्न विधियों का उद्देश्य एक है ।