ये हि संस्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते ।
आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः ॥ २२ ॥
शब्दार्थ
ये – जो; हि – निश्चय हि; संस्पर्श-जा – भौतिक इन्द्रियों के स्पर्श से उत्पन्न; भोगाः – भोग; दुःख – दुःख; योनयः – स्त्रोत, कारण; एव – निश्चय हि; ते – वे; आदि – प्रारम्भ; अन्तवन्त – अन्तकाले; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; न – कभी नहीं; तेषु – उनमें; रमते – आनन्द लेता है; बुधः – बुद्धिमान् मनुष्य ।
भावार्थ
बुद्धिमान् मनुष्य दुख के कारणों में भाग नहीं लेता जो कि भौतिक इन्द्रियों के संसर्ग से उत्पन्न होते हैं । हे कुन्तीपुत्र! ऐसे भोगों का आदि तथा अन्त होता है, अतः चतुर व्यक्ति उनमें आनन्द नहीं लेता ।
तात्पर्य
भौतिक इन्द्रियसुख उन इन्द्रियों के स्पर्श से उद्भूत हैं जो नाशवान हैं क्योंकि शरीर स्वयं नाशवान है । मुक्तात्मा किसी नाशवान वस्तु में रुचि नहीं रखता । दिव्य आनन्द के सुखों से भलीभाँति अवगत वह भला मिथ्या सुख के लिए क्यों सहमत होगा ? पद्मपुराण में कहा गया है –
रमन्ते योगिनोऽनन्ते सत्यानन्दे चिदात्मनि ।
इति रामपदेनासौ परं ब्रह्माभिधीयते ॥
योगीजन परम सत्य में रमण करते हुए अनन्त दिव्यसुख प्राप्त करते हैं इसीलिए परम सत्य को भी राम कहा जाता है ।
भागवत में (५.५.१) भी कहा गया है –
नायं देहो देहभाजां नृलोके कष्टान् कामानहते विड्भुजां ये ।
तपो दिव्यं पुत्रका येन सत्त्वं शुद्धयेद् यस्माद् ब्रह्मसौख्यं त्वनन्तम् ॥
“हे पुत्रो! इस मनुष्ययोनि में इन्द्रियसुख के लिए अधिक श्रम करना व्यर्थ है । ऐसा सुख तो सूकरों को भी प्राप्य है । इसकी अपेक्षा तुम्हें इस जीवन में तप करना चाहिए, जिससे तुम्हारा जीवन पवित्र हो जाय और तुम असीम दिव्यसुख प्राप्त कर सको ।”
अतः जो यथार्थ योगी या दिव्य ज्ञानी हैं वे इन्द्रियसुखों की ओर आकृष्ट नहीं होते क्योंकि ये निरन्तर भवरोग के कारण हैं । जो भौतिकसुख के प्रति जितना ही आसक्त होता है, उसे उतने ही अधिक भौतिक दुख मिलते हैं ।