इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः ।
निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥ १९ ॥
शब्दार्थ
इह – इस जीवन में; एव – निश्चय ही; तैः – उनके द्वारा; जितः – जीता हुआ; सर्गः – जन्म तथा मृत्यु; येषम् – जिनका; साम्ये – समता में; स्थितम् – स्थित; मनः – मन; निर्दोषम् – दोषरहित; हि – निश्चय ही; समम् – समान; ब्रह्म – ब्रह्म की तरह; तस्मात् – अतः; ब्रह्मणि – परमेश्वर में; ते – वे; स्थिताः – स्थित हैं ।
भावार्थ
जिनके मन एकत्व तथा समता में स्थित हैं उन्होंने जन्म तथा मृत्यु के बन्धनों को पहले ही जीत लिया है । वे ब्रह्म के समान निर्दोष हैं और सदा ब्रह्म में ही स्थित रहते हैं ।
तात्पर्य
जैसा कि ऊपर कहा गया है मानसिक समता आत्म-साक्षात्कार का लक्षण है । जिन्होंने ऐसी अवस्था प्राप्त कर ली है, उन्हें भौतिक बंधनों पर, विशेषतया जन्म तथा मृत्यु पर, विजय प्राप्त किए हुए मानना चाहिए । जब तक मनुष्य शरीर को आत्मस्वरूप मानता है, वह बद्धजीव माना जाता है, किन्तु ज्योंही वह आत्म-साक्षात्कार द्वारा समचित्तता की अवस्था को प्राप्त कर लेता है, वह बद्धजीवन से मुक्त हो जाता है । दूसरे शब्दों में, उसे इस भौतिक जगत् में जन्म नहीं लेना पड़ता, अपितु अपनी मृत्यु के बाद वह आध्यात्मिक लोक को जाता है । भगवान् निर्दोष हैं क्योंकि वे आसक्ति अथवा घृणा से रहित हैं । इसी प्रकार जब जीव आसक्ति अथवा घृणा से रहित होता है तो वह भी निर्दोष बन जाता है और वैकुण्ठ जाने का अधिकारी हो जाता है । ऐसे व्यक्तियों को पहले से ही मुक्त मानना चाहिए । उनके लक्षण आगे बतलाये गये हैं ।