नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभुः ।
अज्ञानेनावृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ १५ ॥
शब्दार्थ
न – कभी नहीं; आदत्ते – स्वीकार करता है; कस्यचित् – किसी की; पापम् – पाप; न – न तो; च – भी; एव – निश्चय ही; सु-कृतम् – पुण्य को; विभुः – परमेश्वर; अज्ञानेन – अज्ञान से; आवृतम् – आच्छादित; ज्ञानम् – ज्ञान; तेन – उससे; मुह्यन्ति – मोह-ग्रस्त होते हैं; जन्तवः – जीवगण ।
भावार्थ
परमेश्वर न तो किसी के पापों को ग्रहण करता है, न पुण्यों को । किन्तु सारे देहधारी जीव उस अज्ञान के कारण मोहग्रस्त रहते हैं, जो उनके वास्तविक ज्ञान को आच्छादित किये रहता है ।
तात्पर्य
विभु का अर्थ है, परमेश्वर जो असीम ज्ञान, धन, बल, यश, सौन्दर्य तथा त्याग से युक्त है । वह सदैव आत्मतृप्त और पाप-पुण्य से अविचलित रहता है । वह किसी भी जीव के लिए विशिष्ट परिस्थिति नहीं उत्पन्न करता, अपितु जीव अज्ञान से मोहित होकर जीवन की ऐसी परिस्थिति की कामना करता है, जिसके कारण कर्म तथा फल की श्रृंखला आरम्भ होती है । जीव परा प्रकृति के कारण ज्ञान से पूर्ण है । तो भी वह अपनी सीमित शक्ति के कारण अज्ञान के वशीभूत हो जाता है । भगवान् सर्वशक्तिमान् है, किन्तु जीव नहीं है । भगवान् विभु अर्थात् सर्वज्ञ है, किन्तु जीव अणु है । जीवात्मा में इच्छा करने की शक्ति है, किन्तु ऐसी इच्छा की पूर्ति सर्वशक्तिमान् भगवान् द्वारा ही की जाती है । अतः जब जीव अपनी इच्छाओं से मोहग्रस्त हो जाता है तो भगवान् उसे अपनी इच्छापूर्ति करने देते हैं, किन्तु किसी परिस्थिति विशेष में इच्छित कर्मों तथा फलों के लिए उत्तरदायी नहीं होते । अतएव मोहग्रस्त होने से देहधारी जीव अपने को परिस्थितिजन्य शरीर मान लेता है और जीवन के क्षणिक दुख तथा सुख को भोगता है । भगवान् परमात्मा रूप में जीव का चिरसंगी रहते हैं, फलतः वे प्रत्येक जीव की इच्छाओं को उसी तरह समझते हैं जिस तरह फूल के निकट रहने वाला फूल की सुगन्ध को । इच्छा जीव को बद्ध करने के लिए सूक्ष्म बन्धन है । भगवान् मनुष्य की योग्यता के अनुसार उसकी इच्छा को पूरा करते हैंआपन सोची होत नहिं प्रभु सोची तत्काल । अतः व्यक्ति अपनी इच्छाओं को पूरा करने में सर्वशक्तिमान् नहीं होता । किन्तु भगवान् इच्छाओं की पूर्ति कर सकते हैं । वे निष्पक्ष होने के कारण स्वतन्त्र अणुजीवों की इच्छाओं में व्यवधान नहीं डालते । किन्तु जब कोई कृष्ण की इच्छा करता है तो भगवान् उसकी विशेष चिन्ता करते हैं और उसे इस प्रकार प्रोत्साहित करते हैं कि भगवान् को प्राप्त करने की उसकी इच्छा पूरी हो और वह सदैव सुखी रहे । अतएव वैदिक मन्त्र पुकार कर कहते है - एष उ ह्येव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषते । एष उ एवासाधु कर्म कारयति यमधो निनीषते – “भगवान् जीव को शुभ कर्मों में इसलिए प्रवृत्त करते हैं जिससे वह ऊपर उठे । भगवान् उसे अशुभ कर्मों में इसलिए प्रवृत्त करते हैं जिससे वह नरक जाए ।” (कौषीतकी उपनिषद् ३.८)
अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः ।
ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग वाश्वभ्रमेव च ॥
“जीव अपने सुख-दुख में पूर्णतया आश्रित है । परमेश्वर की इच्छा से वह स्वर्ग या नरक जाता है, जिस तरह वायु के द्वारा प्रेरित बादल ।”
अतः देहधारी जीव कृष्णभावनामृत की उपेक्षा करने की अपनी अनादि प्रवृत्ति के कारण अपने लिए मोह उत्पन्न करता है । फलस्वरूप स्वभावतः सच्चिदानन्द स्वरूप होते हुए भी वह अपने अस्तित्व की लघुता के कारण भगवान् के प्रति सेवा करने की अपनी स्वाभाविक स्थिति को भूल जाता है और इस तरह वह अविद्या द्वारा बन्दी बना लिया जाता है । अज्ञानवश जीव यह कहता है कि उसके भवबन्धन के लिए भगवान् उत्तरदायी हैं । इसकी पुष्टि वेदान्त-सूत्र (२.१.३४) भी करते हैं - वैषम्यनैपुण्ये न सापेक्षत्वात् तथा हि दर्शयति - “भगवान् न तो किसी के प्रति घृणा करते हैं, न किसी को चाहते हैं, यद्यपि ऊपर से ऐसा प्रतीत होता है ।”