परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।
धर्मसंस्थानार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥ ८ ॥
शब्दार्थ
परित्राणाय – उद्धार के लिए; साधूनाम् – भक्तों के; विनाशाय – संहार के लिए; च – तथा; दुष्कृताम् – दुष्टों के; धर्म – धर्म के; संस्थापन-अर्थाय – पुनः स्थापित करने के लिए; सम्भवामि – प्रकट होता हूँ; युगे – युग; युगे – युग में ।
भावार्थ
भक्तों का उद्धार करने, दुष्टों का विनाश करने तथा धर्म की फिर से स्थापना करने के लिए मैं हर युग में प्रकट होता हूँ ।
तात्पर्य
भगवद्गीता के अनुसार साधु (पवित्र पुरुष) कृष्णभावनाभावित व्यक्ति है । अधार्मिक लगने वाले व्यक्ति में भी यदि पूर्ण कृष्णचेतना हो, तो उसे साधु समझना चाहिए । दुष्कृताम् उन व्यक्तियों के लिए आया है जो कृष्णभावनामृत की परवाह नहीं करते । ऐसे दुष्कृताम् या उपद्रवी, मूर्ख तथा अधम व्यक्ति कहलाते हैं, भले ही वे सांसारिक शिक्षा से विभूषित क्यों न हों । इसके विपरीत यदि कोई शत-प्रतिशत कृष्णभावनामृत में लगा रहता है तो वह विद्वान् या सुसंस्कृत न भी हो फिर भी वह साधु माना जाता है । जहाँ तक अनीश्वरवादियों का प्रश्न है, भगवान् के लिए आवश्यक नहीं कि वे इनके विनाश के लिए उस रूप में अवतरित हों जिस रूप में वे रावण तथा कंस का वध करने के लिए हुए थे । भगवान् के ऐसे अनेक अनुचर हैं जो असुरों का संहार करने में सक्षम हैं । किन्तु भगवान् तो अपने उन निष्काम भक्तों को तुष्ट करने के लिए विशेष रूप से अवतार लेते हैं जो असुरों द्वारा निरन्तर तंग किये जाते हैं । असुर भक्त को तंग करता है, भले ही वह उसका सगा-सम्बन्धी क्यों न हो । यद्यपि प्रह्लाद महाराज हिरण्यकशिपु के पुत्र थे, किन्तु तो भी वे अपने पिता द्वारा उत्पीड़ित थे । इसी प्रकार कृष्ण की माता देवकी यद्यपि कंस की बहन थीं, किन्तु उन्हें तथा उनके पति वसुदेव को इसलिए दण्डित किया गया था क्योंकि उनसे कृष्ण को जन्म लेना था । अतः भगवान् कृष्ण मुख्यतः देवकी के उद्धार करने के लिए प्रकट हुए थे, कंस को मारने के लिए नहीं । किन्तु ये दोनों कार्य एकसाथ सम्पन्न हो गये । अतः यह कहा जाता है कि भगवान् भक्त का उद्धार करने तथा दुष्ट असुरों का संहार करने के लिए विभिन्न अवतार लेते हैं ।
कृष्णदास कविराज कृत चैतन्य चरितामृत के निम्नलिखित श्लोकों (मध्य २०.२६३-२६४) से अवतार के सिद्धान्तों का सारांश प्रकट होता है –
सृष्टिहेतु एइ मूर्ति प्रपञ्चे अवतरे ।
सेइ ईश्वरमूर्ति ‘अवतार’ नाम धरे ॥
मायातीत परव्योमे सबार अवस्थान ।
विश्वे ‘अवतरि’ धरे ‘अवतार’ नाम ॥
“अवतार अथवा ईश्वर का अवतार भगवद्धाम से भौतिक प्राकट्य हेतु होता है । ईश्वर का वह विशिष्ट रूप जो इस प्रकार अवतरित होता है अवतार कहलाता है । ऐसे अवतार भगवद्धाम में स्थित रहते हैं । जब वे भौतिक सृष्टि में उतरते हैं, तो उन्हें अवतार कहा जाता है ।”
अवतार कई तरह के होते हैं यथा पुरुषावतार, गुणावतार, लीलावतार, शक्त्यावेश अवतार, मन्वन्तर अवतार तथा युगावतार - इन सबका इस ब्रह्माण्ड में क्रमानुसार अवतरण होता है । किन्तु भगवान कृष्ण आदि भगवान् हैं और समस्त अवतारों के उद्गम हैं । भगवान् श्रीकृष्ण शुद्ध भक्तों की चिन्ताओं को दूर करने के विशिष्ट प्रयोजन से अवतार लेते हैं, जो उन्हें उनकी मूल वृन्दावन लीलाओं के रूप में देखने के उत्सुक रहते हैं । अतः कृष्ण अवतार का मूल उद्देश्य अपने निष्काम भक्तों को प्रसन्न करना है ।
भगवान् का वचन है कि वे प्रत्येक युग में अवतरित होते रहते हैं । इससे सूचित होता है कि वे कलियुग में भी अवतार लेते हैं । जैसा कि श्रीमद्भागवत में कहा गया है कि कलियुग के अवतार भगवान् चैतन्य महाप्रभु हैं जिन्होंने संकीर्तन आन्दोलन के द्वारा कृष्णपूजा का प्रसार किया और पूरे भारत में कृष्णभावनामृत का विस्तार किया । उन्होंने यह भविष्यवाणी की कि संकीर्तन की यह संस्कृति सारे विश्व के नगर-नगर तथा ग्राम-ग्राम में फैलेगी । भगवान् चैतन्य को गुप्त रूप में, किन्तु प्रकट रूप में नहीं, उपनिषदों, महाभारत तथा भागवत जैसे शास्त्रों के गुह्य अंशों में वर्णित किया गया है । भगवान् कृष्ण के भक्तगण भगवान् चैतन्य के संकीर्तन आन्दोलन द्वारा अत्यधिक आकर्षित रहते हैं । भगवान् का यह अवतार दुष्टों का विनाश नहीं करता, अपितु अपनी अहैतुकी कृपा से उनका उद्धार करता है ।