अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥ ६ ॥
शब्दार्थ
अजः – अजन्मा; अपि – तथापि; सन् – होते हुए; अव्यय – अविनाशी; आत्मा – शरीर; भूतानाम् – जन्म लेने वालों के; इश्वरः – परमेश्वर; अपि – यद्यपि; सन् – होने पर; प्रकृतिम् – दिव्य रूप में; स्वाम् – अपने; अधिष्ठाय – इस तरह स्थित; सम्भवामि – मैं अवतार लेता हूँ; आत्म-मायया – अपनी अन्तरंगा शक्ति से ।
भावार्थ
यद्यपि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ और यद्यपि मैं समस्त जीवों का स्वामी हूँ, तो भी प्रत्येक युग में मैं अपने आदि दिव्य रूप में प्रकट होता हूँ ।
तात्पर्य
भगवान् ने अपने जन्म की विलक्षणता बतलाई है । यद्यपि वे सामान्य पुरुष की भाँति प्रकट हो सकते हैं, किन्तु उन्हें विगत अनेकानेक “जन्मों” की पूर्ण स्मृति बनी रहती है, जबकि सामान्य मनुष्य को कुछ ही घंटे पूर्व की घटना स्मरण नहीं रहती । यदि कोई पूछे कि एक दिन पूर्व इसी समय तुम क्या कर रहे थे, तो सामान्य व्यक्ति के लिए इसका तत्काल उत्तर दे पाना कठिन होगा । उसे इसको स्मरण करने के लिए अपनी बुद्धि को कुरेदना पड़ेगा कि वह कल इसी समय क्या कर रहा था । फिर भी लोग प्रायः अपने को ईश्वर या कृष्ण घोषित करते रहते हैं । मनुष्य को ऐसी निरर्थक घोषणाओं से भ्रमित नहीं होना चाहिए । अब भगवान् दुबारा अपनी प्रकृति या स्वरूप की व्याख्या करते हैं । प्रकृति का अर्थ स्वभाव तथा स्वरूप दोनों है । भगवान् कहते हैं कि वे अपने ही शरीर में प्रकट होते हैं । वे सामान्य जीव की भाँति शरीर-परिवर्तन नहीं करते । इस जन्म में बद्धजीव का एक प्रकार का शरीर हो सकता है, किन्तु अगले जन्म में दूसरा शरीर रहता है । भौतिक जगत् में जीव का कोई स्थायी शरीर नहीं है, अपितु वह एक शरीर से दूसरे में देहान्तरण करता रहता है । किन्तु भगवान् ऐसा नहीं करते । जब भी वे प्रकट होते हैं तो अपनी अन्तरंगा शक्ति से वे अपने उसी आद्य शरीर में प्रकट होते हैं । दूसरे शब्दों में, श्रीकृष्ण इस जगत् में अपने आदि शाश्वत स्वरूप में दो भुजाओं में बाँसुरी धारण किये अवतरित होते हैं । वे इस भौतिक जगत से निष्कलषित रह कर अपने शाश्वत शरीर सहित प्रकट होते हैं । यद्यपि वे अपने उसी दिव्य शरीर में प्रकट होते हैं और ब्रह्माण्ड के स्वामी होते हैं तो भी ऐसा लगता है कि वे सामान्य जीव की भाँति प्रकट हो रहे हैं । यद्यपि उनका शरीर भौतिक शरीर की भाँति क्षीण नहीं होता फिर भी ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् कृष्ण बालपन से कुमारावस्था तथा कुमारावस्था से तरुणावस्था प्राप्त करते हैं । किन्तु आश्चर्य तो यह है कि वे कभी युवावस्था से आगे नहीं बढ़ते । कुरुक्षेत्र युद्ध के समय उनके अनेक पौत्र थे या दूसरे शब्दों में, वे भौतिक गणना के अनुसार काफी वृद्ध थे । फिर भी वे बीस-पच्चीस वर्ष के युवक जैसे लगते थे । हमें कृष्ण की वृद्धावस्था का कोई चित्र नहीं दिखता, क्योंकि वे कभी भी हमारे समान वृद्ध नहीं होते यद्यपि वे तीनों काल में-भूत, वर्तमान तथा भविष्यकाल में सबसे वयोवृद्ध पुरुष हैं । न तो उनका शरीर और न ही बुद्धि कभी क्षीण होती या बदलती है । अतः यह स्पष्ट है कि इस जगत् में रहते हुए भी वे उसी अजन्मा सच्चिदानन्द रूप वाले हैं, जिनके दिव्य शरीर तथा बुद्धि में कोई परिवर्तन नहीं होता । वस्तुतः उनका आविर्भाव और तिरोभाव सूर्य के उदय तथा अस्त के समान है जो हमारे सामने से घूमता हुआ हमारी दृष्टि से ओझल हो जाता है । जब सूर्य हमारी दृष्टि से ओझल रहता है तो हम सोचते हैं कि सूर्य अस्त हो गया है और जब वह हमारे समक्ष होता है तो हम सोचते हैं कि वह क्षितिज में है । वस्तुतः सूर्य स्थिर है, किन्तु अपनी अपूर्ण एवं त्रुटिपूर्ण इन्द्रियों के कारण हम सूर्य को उदय और अस्त होते परिकल्पित करते हैं । और चूँकि भगवान् का प्राकट्य तथा तिरोधान सामान्य जीव से भिन्न हैं अतः स्पष्ट है कि वे शाश्वत हैं, अपनी अन्तरंगा शक्ति के कारण आनन्दस्वरूप हैं और इस भौतिक प्रकृति द्वारा कभी कलुषित नहीं होते । वेदों द्वारा भी पुष्टि की जाती है कि भगवान् अजन्मा होकर भी अनेक रूपों में अवतरित होते रहते हैं । वैदिक साहित्यों से भी पुष्टि होती है कि यद्यपि भगवान् जन्म लेते प्रतीत होते हैं, किन्तु तो भी वे शरीर-परिवर्तन नहीं करते । श्रीमद्भागवत में वे अपनी माता के समक्ष नारायण रूप में चार भजाओं तथा षडऐश्वर्यो से यक्त होकर प्रकट होते हैं । उनका आद्य शाश्वत रूप में प्राकट्य उनकी अहैतुकी कपा है जो जीवों को प्रदान की जाती है जिससे वे भगवान् के यथारूप में अपना ध्यान केन्द्रित कर सकें न कि निर्विशेषवादियों द्वारा मनोधर्म या कल्पनाओं पर आधारित रूप में । विश्वकोश के अनुसार माया या आत्म-माया शब्द भगवान् की अहैतुकी कृपा का सूचक है । भगवान् अपने समस्त पूर्व आविर्भावतिरोभावों से अवगत रहते हैं, किन्तु सामान्य जीव को जैसे ही नवीन शरीर प्राप्त होता है वह अपने पूर्व शरीर के विषय में सब कुछ भूल जाता है । वे समस्त जीवों के स्वामी हैं, क्योंकि इस धरा पर रहते हुए वे आश्चर्यजनक तथा अतिमानवीय लीलाएँ करते रहते हैं । अतः भगवान् निरन्तर वही परम सत्य रूप हैं और उनके स्वरूप तथा आत्मा में या उनके गुण तथा शरीर में कोई अन्तर नहीं होता । अब यह प्रश्न किया जा सकता है कि इस संसार में भगवान् क्यों आविर्भूत और तिरोभूत होते रहते हैं ? अगले श्लोक में इसकी व्याख्या की गई है ।