न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ॥ ३८ ॥

शब्दार्थ

– कुछ भी नहीं; हि – निश्चय ही; ज्ञानेन – ज्ञान से; सदृशम् – तुलना में; पवित्रम् – पवित्र; इह – इस संसार में; विद्यते – है; तत् – उस; स्वयम् – अपने आप; योग – भक्ति में; संसिद्ध – परिपक्व होने पर; कालेन – यथासमय; आत्मनि – अपने आप में, अन्तर में; विन्दति – आस्वादन करता है ।

भावार्थ

इस संसार में दिव्यज्ञान के समान कुछ भी उदात्त तथा शुद्ध नहीं है । ऐसा ज्ञान समस्त योग का परिपक्व फल है । जो व्यक्ति भक्ति में सिद्ध हो जाता है, वह यथासमय अपने अन्तर में इस ज्ञान का आस्वादन करता है ।

तात्पर्य

जब हम दिव्यज्ञान की बात करते हैं तो हमारा प्रयोजन आध्यात्मिक ज्ञान से होता है । निस्सन्देह दिव्यज्ञान के समान कुछ भी उदात्त तथा शुद्ध नहीं है । अज्ञान ही हमारे बन्धन का कारण है और ज्ञान हमारी मुक्ति का । यह ज्ञान भक्ति का परिपक्व फल है । जब कोई दिव्यज्ञान की अवस्था प्राप्त कर लेता है तो उसे अन्यत्र शान्ति खोजने की आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि वह मन ही मन शान्ति का आनन्द लेता रहता है । दूसरे शब्दों में, ज्ञान तथा शान्ति का पर्यवसान कृष्णभावनामृत में होता है । भगवद्गीता के सन्देश की यही चरम परिणति है ।