यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि पाण्डव ।
येन भूतान्यशेषाणि द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥ ३५ ॥

शब्दार्थ

यत् – जिसे; ज्ञात्वा – जानकर; – कभी नहीं; पुनः – फिर; मोहम् – मोह को; एवम् – इस प्रकार; यास्यसि – प्राप्त होंगे; पाण्डव – हे पाण्डवपुत्र; येन – जिससे; भूतानि – जीवों को; अशेषेण – समस्त; द्रक्ष्यसि – देखोगे; आत्मनि – परमात्मा में; अथ उ – अथवा अन्य शब्दों में; मयि – मुझमें ।

भावार्थ

स्वरूपसिद्ध व्यक्ति से वास्तविक ज्ञान प्राप्त कर चुकने पर तुम पुनः कभी ऐसे मोह को प्राप्त नहीं होगे क्योंकि इस ज्ञान के द्वारा तुम देख सकोगे कि सभी जीव परमात्मा के अंशस्वरूप हैं, अर्थात् वे सब मेरे हैं ।

तात्पर्य

स्वरूपसिद्ध व्यक्ति से ज्ञान प्राप्त होने का परिणाम यह होता है कि यह पता चल जाता है कि सारे जीव भगवान् श्रीकृष्ण के भिन्न अंश हैं । कृष्ण से पृथक् अस्तित्व का भाव माया (मा - नहीं, या - यह) कहलाती है । कुछ लोग सोचते हैं कि हमें कृष्ण से क्या लेना देना है वे तो केवल महान ऐतिहासिक पुरुष हैं और परब्रह्म तो निराकार है । वस्तुतः जैसा कि भगवद्गीता में कहा गया है यह निराकार ब्रह्म कृष्ण का व्यक्तिगत तेज है । कृष्ण भगवान् के रूप में प्रत्येक वस्तु के कारण हैं । ब्रह्मसंहिता में स्पष्ट कहा गया है कि कृष्ण श्रीभगवान् हैं और सभी कारणों के कारण हैं । यहाँ तक कि लाखों अवतार उनके विभिन्न विस्तार ही हैं । इसी प्रकार सारे जीव भी कृष्ण के अंश हैं । मायावादियों की यह मिथ्या धारणा है कि कृष्ण अपने अनेक अंशों में अपने निजी पृथक् अस्तित्व को मिटा देते हैं । यह विचार सर्वथा भौतिक है । भौतिक जगत् में हमारा अनुभव है कि यदि किसी वस्तु का विखण्डन किया जाय तो उसका मूलस्वरूप नष्ट हो जाता है । किन्तु मायावादी यह नहीं समझ पाते कि परम का अर्थ है कि एक और एक मिलकर एक ही होता है और एक में से एक घटाने पर भी एक बचता है । परब्रह्म का यही स्वरूप है ।

ब्रह्मविद्या का पर्याप्त ज्ञान न होने के कारण हम माया से आवृत हैं इसीलिए हम अपने को कृष्ण से पृथक् सोचते हैं । यद्यपि हम कृष्ण के भिन्न अंश हैं, किन्तु तो भी हम उनसे भिन्न नहीं हैं । जीवों का शारीरिक अन्तर माया है अथवा वास्तविक सत्य नहीं है । हम सभी कृष्ण को प्रसन्न करने के निमित्त हैं । केवल माया के कारण ही अर्जुन ने सोचा कि उसके स्वजनों से उसका क्षणिक शारीरिक सम्बन्ध कृष्ण के शाश्वत आध्यात्मिक सम्बन्धों से अधिक महत्त्वपूर्ण है । गीता का सम्पूर्ण उपदेश इसी ओर लक्षित है कि कृष्ण का नित्य दास होने के कारण जीव उनसे पृथक् नहीं हो सकता, कृष्ण से अपने को विलग मानना ही माया कहलाती है । परब्रह्म के भिन्न अंश के रूप में जीवों को एक विशिष्ट उद्देश्य पूरा करना होता है । उस उद्देश्य को भुलाने के कारण ही वे अनादिकाल से मानव, पशु, देवता आदि देहों में स्थित हैं । ऐसे शारीरिक अन्तर भगवान् की दिव्य सेवा के विस्मरण से जनित हैं । किन्तु जब कोई कृष्णभावनामृत के माध्यम से दिव्य सेवा में लग जाता है तो वह इस माया से तुरन्त मुक्त हो जाता है । ऐसा ज्ञान केवल प्रामाणिक गुरु से ही प्राप्त हो सकता है और इस तरह वह इस भ्रम को दूर कर सकता है कि जीव कृष्ण के तुल्य है । पूर्णज्ञान तो यह है कि परमात्मा कृष्ण समस्त जीवों के परम आश्रय हैं और इस आश्रय को त्याग देने पर जीव माया द्वारा मोहित होते हैं, क्योंकि वे अपना अस्तित्व पृथक् समझते हैं । इस तरह विभिन्न भौतिक पहचानों के मानदण्डों के अन्तर्गत वे कृष्ण को भूल जाते हैं । किन्तु जब ऐसे मोहग्रस्त जीव कृष्णभावनामृत में स्थित होते हैं तो यह समझा जाता है कि वे मुक्ति-पथ पर हैं जिसकी पुष्टि भागवत में (२.१०.६) की गई है - मुक्तिर्हित्वान्यथारूपं स्वरूपेण व्यवस्थितिः । मुक्ति का अर्थ है - कृष्ण के नित्य दास रूप में (कृष्णभावनामृत में) अपनी स्वाभाविक स्थिति पर होना ।