एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।
कर्मजान्विद्धि तान्सर्वानेवं ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥ ३२ ॥

शब्दार्थ

एवम् – इस प्रकार; बहु-विधाः – विविध प्रकार के; यज्ञाः – यज्ञ; वितताः – फैले हुए हैं; ब्रह्मणः – वेदों के; मुखे – मुख में; कर्म-जान् – कर्म से उत्पन्न; विद्धि – जानो; तान् – उन; सर्वान् – सबको; एवम् – इस तरह; ज्ञात्वा – जानकर; विमोक्ष्यसे – मुक्त हो जाओगे ।

भावार्थ

ये विभिन्न प्रकार के यज्ञ वेदसम्मत हैं और ये सभी विभिन्न प्रकार के कर्मों से उत्पन्न हैं । इन्हें इस रूप में जानने पर तुम मुक्त हो जाओगे ।

तात्पर्य

जैसा कि पहले बताया जा चुका है वेदों में कर्ताभेद के अनुसार विभिन्न प्रकार के यज्ञों का उल्लेख है । चूँकि लोग देहात्मबुद्धि में लीन हैं, अतः इन यज्ञों की व्यवस्था इस प्रकार की गई है कि मनुष्य उन्हें अपने शरीर, मन अथवा बुद्धि के अनुसार सम्पन्न कर सके । किन्तु देह से मुक्त होने के लिए ही इन सबका विधान है । इसी की पुष्टि यहाँ पर भगवान् ने अपने श्रीमुख से की है ।