अपाने जुह्वति प्राणं प्राणेऽपानं तथापरे ।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः ।
अपरे नियताहाराः प्राणान्प्राणेषु जुह्वति ॥ २९ ॥

शब्दार्थ

अपाने – निम्नगामी वायु में; जुह्वति – अर्पित करते हैं; प्राणम् – प्राण को; प्राणे – प्राण में; अपानम् – निम्नगामी वायु को; तथा – ऐसे ही; अपरे – अन्य; प्राण – प्राण का; अपान – निम्नगामी वायु; गती – गति को; रुद्ध्वा – रोककर; प्राण-आयाम – श्वास रोक कर समाधि में; परायणाः – प्रवृत्त; अपरे – अन्य; नियत – संयमित, अल्प; आहाराः – खाकर; प्राणान् – प्राणों को; प्राणेषु – प्राणों में; जुह्वति – हवन करते हैं, अर्पित करते हैं ।

भावार्थ

अन्य लोग भी हैं जो समाधि में रहने के लिए श्वास को रोके रहते हैं (प्राणायाम) । वे अपान में प्राण को और प्राण में अपान को रोकने का अभ्यास करते हैं और अन्त में प्राणअपान को रोककर समाधि में रहते हैं । अन्य योगी कम भोजन करके प्राण की प्राण में ही आहुति देते हैं ।

तात्पर्य

श्वास को रोकने की योगविधि प्राणायाम कहलाती है । प्रारम्भ में हठयोग के विविध आसनों की सहायता से इसका अभ्यास किया जाता है । ये सारी विधियाँ इन्द्रियों को वश में करने तथा आत्म-साक्षात्कार की प्रगति के लिए संस्तुत की जाती हैं । इस विधि में शरीर के भीतर वायु को रोका जाता है जिससे वायु की गति की दिशा उलट सके । अपान वायु निम्नगामी (अधोमुखी) है और प्राणवायु ऊर्ध्वगामी है । प्राणायाम में योगी विपरीत दिशा में श्वास लेने का तब तक अभ्यास करता है जब तक दोनों वाय उदासीन होकर पूरक अर्थात् सम नहीं हो जातीं । जब अपान वायु को प्राणवायु में अर्पित कर दिया जाता है तो इसे रेचक कहते हैं । जब प्राण तथा अपान वायुओं को पूर्णतया रोक दिया जाता है तो इसे कुम्भक योग कहते हैं । कुम्भक योगाभ्यास द्वारा मनुष्य आत्म-सिद्धि के लिए जीवन अवधि बढ़ा सकता है । बुद्धिमान योगी एक ही जीवनकाल में सिद्धि प्राप्त करने का इच्छुक रहता है, वह दूसरे जीवन की प्रतीक्षा नहीं करता । कुम्भक योग के अभ्यास से योगी जीवन अवधि को अनेक वर्षों के लिए बढ़ा सकता है । किन्तु भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में स्थित रहने के कारण कृष्णभावनाभावित मनुष्य स्वतः इन्द्रियों का नियंता (जितेन्द्रिय) बन जाता है । उसकी इन्द्रियाँ कृष्ण की सेवा में तत्पर रहने के कारण अन्य किसी कार्य में प्रवृत्त होने का अवसर ही नहीं पातीं । फलतः जीवन के अन्त में उसे स्वतः भगवान् कृष्ण के दिव्य पद पर स्थानान्तरित कर दिया जाता है, अतः वह दीर्घजीवी बनने का प्रयत्न नहीं करता । वह तुरन्त मोक्ष पद को प्राप्त कर लेता है, जैसा कि भगवद्गीता में (१४.२६) कहा गया है –

मां च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते ।
स गुणान्समतीत्येतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ॥

“जो व्यक्ति भगवान् की निश्छल भक्ति में प्रवृत्त होता है वह प्रकृति के गुणों को लाँघ जाता है और तुरन्त आध्यात्मिक पद को प्राप्त होता है ।” कृष्णभावनाभावित व्यक्ति दिव्य अवस्था से प्रारम्भ करता है और निरन्तर उसी चेतना में रहता है । अतः उसका पतन नहीं होता और अन्ततः वह भगवद्धाम को जाता है । कृष्ण प्रसादम् को ही खाते रहने से स्वतः कम खाने की आदत पड़ जाती है । इन्द्रियनिग्रह के मामले में कम भोजन करना (अल्पाहार) अत्यन्त लाभप्रद होता है और इन्द्रियनिग्रह के बिना भवबन्धन से निकल पाना सम्भव नहीं है ।