गतसङ्गस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतसः ।
यज्ञायाचरतः कर्म समग्रं प्रविलीयते ॥ २३ ॥
शब्दार्थ
गत-सङ्गस्य – प्रकृति के गुणों के प्रति; मुक्तस्य – मुक्त पुरुष का; ज्ञान-अवस्थित – ब्रह्म में स्थित; चेतसः – जिसका ज्ञान; यज्ञाय – यज्ञ (कृष्ण) के लिए; आचरतः – करते हुए; कर्म – कर्म; समग्रम् – सम्पूर्ण; प्रविलीयते – पूर्वरूप से विलीन हो जाता है ।
भावार्थ
जो पुरुष प्रकृति के गुणों के प्रति अनासक्त है और जो दिव्य ज्ञान में पूर्णतया स्थित है, उसके सारे कर्म ब्रह्म में लीन हो जाते हैं ।
तात्पर्य
पूर्णरूपेण कृष्णभावनाभावित होने पर मनुष्य समस्त द्वन्द्वों से मुक्त हो जाता है और इस तरह भौतिक गुणों के कल्मष से भी मुक्त हो जाता है । वह इसीलिए मुक्त हो जाता है क्योंकि वह कृष्ण के साथ अपने सम्बन्ध की स्वाभाविक स्थिति को जानता है, फलस्वरूप उसका चित्त कृष्णभावनामृत से विचलित नहीं होता । अतएव वह जो कुछ भी करता है, वह आदिविष्णु कृष्ण के लिए होता है । अतः उसका सारा कर्म यज्ञरूप होता है, क्योंकि यज्ञ का उद्देश्य परम पुरुष विष्णु अर्थात् कृष्ण को प्रसन्न करना है । ऐसे यज्ञमय कर्म का फल निश्चय ही ब्रह्म में विलीन हो जाता है और मनुष्य को कोई भौतिक फल नहीं भोगना पड़ता है ।