कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥ १७ ॥

शब्दार्थ

कर्मणः – कर्म का; हि – निश्चय ही; अपि – भी; बोद्धव्यम् – समझना चाहिए; बोद्धव्यम् – समझना चाहिए; – भी; विकार्मणः – अकर्म का; बोद्धव्यम् – समझना चाहिए; गहना – अत्यन्त कठिन, दुर्गम; कर्मणः – कर्म की; गतिः – प्रवेश, गति ।

भावार्थ

कर्म की बारीकियों को समझना अत्यन्त कठिन है । अतः मनुष्य को चाहिए कि वह यह ठीक से जाने कि कर्म क्या है, विकर्म क्या है और अकर्म क्या है ।

तात्पर्य

यदि कोई सचमुच ही भव-बन्धन से मुक्ति चाहता है तो उसे कर्म, अकर्म तथा विकर्म के अन्तर को समझना होगा । कर्म, अकर्म तथा विकर्म के विश्लेषण की आवश्यकता है, क्योंकि यह अत्यन्त गहन विषय है । कृष्णभावनामृत को तथा गुणों के अनुसार कर्म को समझने के लिए परमेश्वर के साथ अपने सम्बन्ध को जानना होगा । दूसरे शब्दों में, जिसने यह भलीभाँति समझ लिया है, वह जानता है कि जीवात्मा भगवान् का नित्य दास है और फलस्वरूप उसे कृष्णभावनामृत में कार्य करना है । सम्पूर्ण भगवद्गीता का यही लक्ष्य है । इस भावनामृत के विरुद्ध सारे निष्कर्ष एवं परिणाम विकर्म या निषिद्ध कर्म हैं । इसे समझने के लिए मनुष्य को कृष्णभावनामृत के अधिकारियों की संगति करनी होती है और उनसे रहस्य को समझना होता है । यह साक्षात् भगवान् से समझने के समान है । अन्यथा बुद्धिमान् से बुद्धिमान् मनुष्य भी मोहग्रस्त हो जाएगा ।