यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥ ७ ॥

शब्दार्थ

यः – जो; तु – लेकिन; इन्द्रियाणि – इन्द्रियों को; मनसा – मन के द्वारा; नियम्य – वश में करके; आरभते – प्रारम्भ करता है; अर्जुन – हे अर्जुन; कर्म-इन्द्रियैः – कर्मेन्द्रियों से; कर्म-योगम् – भक्ति; असक्तः – अनासक्त; सः – वह; विशिष्यते – श्रेष्ठ है ।

भावार्थ

दूसरी ओर यदि कोई निष्ठावान व्यक्ति अपने मन के द्वारा कर्मेन्द्रियों को वश में करने का प्रयत्न करता है और बिना किसी आसक्ति के कर्मयोग (कृष्णभावनामृत में) प्रारम्भ करता है, तो वह अति उत्कृष्ट है ।

तात्पर्य

लम्पट जीवन और इन्द्रियसुख के लिए छद्म योगी का मिथ्या वेष धारण करने की अपेक्षा अपने कर्म में लगे रह कर जीवन-लक्ष्य को, जो भवबन्धन से मुक्त होकर भगवद्धाम को जाना है, प्राप्त करने के लिए कर्म करते रहना अधिक श्रेयस्कर है । प्रमुख स्वार्थ-गति तो विष्णु के पास जाना है । सम्पूर्ण वर्णाश्रम-धर्म का उद्देश्य इसी जीवन-लक्ष्य की प्राप्ति है । एक गृहस्थ भी कृष्णभावनामृत में नियमित सेवा करके इस लक्ष्य तक पहुँच सकता है । आत्म-साक्षात्कार के लिए मनुष्य शास्त्रानुमोदित संयमित जीवन बिता सकता है और अनासक्त भाव से अपना कार्य करता रह सकता है । इस प्रकार वह प्रगति कर सकता है । जो निष्ठावान व्यक्ति इस विधि का पालन करता है वह उस पाखंडी (धूत) से कहीं श्रेष्ठ है जो अबोध जनता को ठगने के लिए दिखावटी आध्यात्मिकता का जामा धारण करता है । जीविका के लिए ध्यान धरने वाले प्रवंचक ध्यानी की अपेक्षा सड़क पर झाड़ लगाने वाला निष्ठावान व्यक्ति कहीं अच्छा है ।