न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्य पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥ ४ ॥

शब्दार्थ

– नहीं; कर्मणाम् – नियत कर्मों के; अनाराम्भात् – न करने से; नैष्कर्म्यम् – कर्मबन्धन से मुक्ति को; पुरुषः – मनुष्य; अश्नुते – प्राप्त करता है; – नहीं; – भी; संन्यसनात् – त्याग से; एव – केवल; सिद्धिम् – सफलता; समधिगच्छति – प्राप्त करता है ।

भावार्थ

न तो कर्म से विमुख होकर कोई कर्मफल से छुटकारा पा सकता है और न केवल संन्यास से सिद्धि प्राप्त की जा सकती है ।

तात्पर्य

भौतिकतावादी मनुष्यों के हृदयों को विमल करने के लिए जिन कर्मों का विधान किया गया है उनके द्वारा शुद्ध हुआ मनुष्य ही संन्यास ग्रहण कर सकता है । शुद्धि के बिना अनायास संन्यास ग्रहण करने से सफलता नहीं मिल पाती । ज्ञानयोगियों के अनुसार संन्यास ग्रहण करने अथवा सकाम कर्म से विरत होने से ही मनुष्य नारायण के समान हो जाता है । किन्तु भगवान् कृष्ण इस मत का अनुमोदन नहीं करते । हृदय की शुद्धि के बिना संन्यास सामाजिक व्यवस्था में उत्पात उत्पन्न करता है । दूसरी ओर यदि कोई नियत कर्मों को न करके भी भगवान् की दिव्य सेवा करता है तो वह उस मार्ग में जो कुछ भी उन्नति करता है उसे भगवान् स्वीकार कर लेते हैं (बुद्धियोग) । स्वल्यमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् । ऐसे सिद्धान्त की रंचमात्र सम्पन्नता भी महान कठिनाइयों को पार करने में सहायक होती है ।